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मीडिया का चरित्र, उम्मीद बाकी है!

पर्दा
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परिस्थितियों का चरित्र हमेशा परिवर्तित होता रहा है। समय और सापेक्षता का सिद्धांत भी स्थायी नहीं है। विचार-व्यवहार बदलते रहे हैं। ऐसे में, सिर्फ इसलिए कि अब तक लोग मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पुकारते या मानते रहे हैं, परंपरा का निर्वाह करते हुए हम भी इसे ऐसा ही मानें, यह कतई ज़रूरी नहीं है। स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता। नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक के दौर वाली पत्रकारिता और फिर इसके बाद की पत्रकारिता। ये कोई परंपरागत विमर्श-पद्धति वाला वर्गीकरण नहीं है। बल्कि ये बस काल-परिवर्तन और परिदृश्यगत् बदलाव के अनुरूप मीडिया के कायांतरण की महज सीढ़ियां हैं। पत्रकारिता समाजसेवा के जुनूनी दौर को अरसा पहले ही अलविदा कह चुकी है। अन्याय और अनीति के ख़िलाफ़ विद्रोह का शंखनाद फूंकने वाले तो हैं लेकिन अब शंख पर बाज़ार का कब्जा है।

बाज़ार ने मीडिया का कायाकल्प कर दिया है। मीडियाकर्मी अब समाज में व्याप्त बुराइयों और व्यवस्था की दगाबाज़ियों को उजागर करनेवाला हरावल नहीं रहा। वह अब बाज़ार का टूल यानी औज़ार बन गया है। बाज़ार और सत्ता प्रतिष्ठानों के बीच इसकी भूमिका टाउट यानी बिचौलियों वाली रह गई है। सन 1780 में जब बंगाल गजट जैसे समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था तो उसका मकसद भी अंग्रेजी हुकूमत और भारतीय जन मानस के बीच बढ़ती खाई को पाटना ही था। ठीक उसी तरह, जैसे कांग्रेस नाम के संगठन की नींव, अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बढ़ रहे आक्रोश को शांत करने और सशस्त्र क्रांति की आशंका को खत्म कर, प्रबुद्ध वर्ग को अंग्रेजी सत्ता का सिपहसालार बनाने की ग़रज़ से ही रखी गई थी।

जेम्स ऑगस्टस हिक्की हों या ए ओ ह्यूम। दोनों का मकसद समन्वय ही था(समन्वय शब्द इसलिए क्योंकि ये लोग इतिहास पुरुष हैं और इनके लिए मध्यस्थ जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाता)। यहां पर बराबरी-गैर बराबरी के झमेले में उलझने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन इस बात से भी आप इनकार नहीं कर सकते कि ये दोनों ही येन-केन-प्रकारेण देश-समाज में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति घर करती घृणा और आक्रोश को कम करने की कोशिश कर रहे थे। ये अलग बात है कि अंग्रेजों ने समन्वय के जिन हथियारों का इस्तेमाल अपनी सत्ता को भारत में सुदृढ़ करने के लिए किया, वही कालांतर में उनके खिलाफ इस्तेमाल हुए और घातक भी सिद्ध हुए। अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं का स्वतंत्रता आंदोलन पर प्रभाव किसी से छुपा नहीं है। कांग्रेस की कथा भी बहुत कुछ वैसी ही है।

ख़ैर, हम राजनीतिक इतिहास की पड़ताल करने नहीं बैठे हैं। हमारा मक़सद मीडिया के वर्तमान चरित्र को समझने के लिए उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और चरित्र की पड़ताल मात्र है। क्या हम इसे महज इत्तेफाक मान लें कि सन 1927 में रेडियो और आज़ादी के बाद सन 1959 में भारत में टेलीविज़न प्रसारण के शुभारंभ का मक़सद भी बहुत हद तक समाजसेवा ही था? किसानों को खेती से जुड़ी जानकारियां देना, ताकि कृषि के क्षेत्र में क्रांति आ सके। शिक्षा के प्रति लोगों को जागरुक करना। रोज़ी-रोजगार के बारे में सूचना देना। सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार और इनके खिलाफ जनमत तैयार करना आदि।

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के दौर तक भारतीय मीडिया और मीडियाकर्म से जुड़े लोग, दोनों ही अपने चरित्र और व्यवहार में जन हितैषी ही रहे। महत्वकांक्षी संजय गांधी के दबंग रुख़ और सत्ता प्रतिष्ठान की पहली टेढ़ी नज़र के बाद ही बहुत से चेहरे बेनक़ाब होने लगे। अलग बात है कि पानी अभी भी बाक़ी रहा। लोग इस पेशे को पेशा कम, सेवा ज्यादा मानते रहे या कि ये धारणा इतनी आकर्षक थी कि बिगड़ी नहीं, बनी ही रही। सत्ता से लेकर समाज तक में मीडियाकर्म और कर्मी दोनों सम्मानजनक स्थिति में ही रहे। ठीक उसी तरह जैसे डॉक्टर और टीचर। 90 का दशक तो ख़ैर फिर भी ठीक-ठाक ही रहा। हालांकि गुपचुप पेड न्यूज़ जैसी प्रवृति घुसपैठ कर चुकी थी। बेशर्मी टाइम्स ग्रुप से शुरू हुई और 20वीं सदी के अंतिम दशक ने सबकुछ उलट-पुलट कर दिया।

उदारीकरण की आंधी ने मीडिया के समाजसेवी होने का दंभ तोड़ा तो मीडियाकर्मियों के सम्मान का कीर्ति-स्तम्भ भी डवांडोल हुआ। समाचार पत्रों के मालिकों ने अब कथित संभ्रांत और समाजसेवी, साहित्यशिल्पियों के हाथ से कमान छीननी शुरू कर दी। उन्हें अब सारगर्भित लेखों और विचारोत्तेजक संभाषणों के सिद्धहस्तों की ज़रूरत नहीं रही। वहां वैसे लोगों की पूछ बढ़ी जो सत्ता के गलियारे में अपनी पैठ रखते हों, जो कॉर्पोरेट हित में मीडिया एथिक्स को ठेंगा दिखा सकते हों। थोड़ी बेहयाई बरतें तो ये कि कॉर्पोरेट दलाली में माहिर हों। उदारीकरण की कोख से जन्मी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो इस मामले में प्रिंट को बुरी तरह से चित कर दिया।

दूरदर्शन के सरकारी भोंपू बनने का भी यही दौर था। निजी न्यूज़ चैनलों की होड़ का भी यही ज़माना था। लोगों ने दूरदर्शन को सरकार का तोता गरदानते हुए, आजतक, स्टार न्यूज़, ज़ी न्यूज़ और नई दिल्ली टेलीविज़न(जिसे लोग एनडीटीवी के नाम से जानते हैं) को सिर-आंखों पर बिठाना शुरू कर दिया। बीबीसी बोले तो पक्की ख़बर से छिटक कर लोग सबसे तेज़ बोले तो आज तक, सबसे सटीक बोले तो एनडीटीवी जैसे मुहावरों की गिरफ्त में आ गए। शुरूआती दौर जैसा कि हमने शुरू में ही कहा है, बड़ा ही आकर्षक और हृदयग्राही हुआ करता है। यहां भी रहा। निर्भीक रिपोर्टिंग, बेबाक टिप्पणी, लाजवाब प्रजेंटेशन और जनहित से जुड़े मुद्दे उठाने वाले तमाम महारथी यहां भी थे(बिल्कुल प्रिंट मीडिया की ही तरह)। लेकिन अचानक टीआरपी डायन बीच में आ गई। पत्रकारिता का बुखार उतरने लगा। बाज़ार का नशा चढ़ने लगा।

दिखना था, लिहाजा खादी की झोली और पजामा-कुर्ता से काम नहीं चल सकता था। अच्छे कपड़े के लिए अच्छी आमदनी चाहिए थी। अच्छी आमदनी के लिए बाज़ार के नज़र-ए-करम की दरकार थी। सबसे बढ़कर मालिक की फटकार और नौकरी जाने का ख़ौफ़, रेवेन्यू जेनरेट करो या फिर बाहर जाओ।

सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरी घटी। निजीकरण ने नये सपने बांटे। जो यहां अनफिट सिद्ध हुए(या यूं कह लें कि मौका नहीं पा सके), वो इधर चले आए। नये रंगरूटों ने मीडिया एथिक्स पढ़ा तो था, लेकिन लोगों को समझाने के लिए, दूसरों को गरियाने के लिए। अपने लिए तो जो हम कह रहे हैं, वही सही है। यहां तो ऐसे ही चलेगा। चलने भी लगा। पत्रकार जो पहले सच के सामने किसी की कुछ भी नहीं सुनता था, वो अब या तो बेरोजगार होने लगा या फिर मालिक के निर्देश पर सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े प्रभावशाली लोगों को संस्थान के लिए, संस्थान के मालिक के हित के लिए सेट करने लगा।

बाज़ार ने टार्गेट व्यूअर यानी दर्शक तय कर दिया। ख़बरें वही हैं, जो उपभोक्ता के हित में है, बाज़ार के हित में है। सरकार ने विज्ञापन की रेवड़ थमा दी और साथ में अघोषित संदेश भी कि ख़बरें वही जो सरकार के हित में है। मीडिया अब उद्योग बन गया। पत्रकार अब पेशेवर होने लगे। संस्थान अब मुनाफा ढूंढने लगा। नेता अब स्पेस डिमांड करने लगे। बाज़ार चमक-दमक और आकर्षण मांगने लगा। स्वतंत्रता की आग, अन्याय का विरोध, जन सरोकार, आम आदमी की आवाज़.., सब बीते हुए साल के कैलेंडर के दिन-तारीख़ बनते चले गए। मीडिया में जो बाक़ी बचा, वो खांटी व्यापार था।

स्लोगन भी देखिए, जो दिखता है वो बिकता है। यानी बार बालाओं का डांस, दुष्कर्म नहीं, बलात्कार और रेप की ख़बरें। हिरोइनों के नखरे। बिकनी और बिरयानी की बात। ब्रांड और कम्पनियों की बात। भूत, धरती पर ख़तरा, नर्क का देवता, स्वर्ग की शाम या फिर कहीं किसी कारण से सियासी बवाल और नेता का बयान। हां, कभी-कभार अगर सरकार विज्ञापन में आनाकानी बरते तो फिर जनहित और सरकार की विफलता भी ख़बरों में शुमार होने लगे।

साहित्य की तो ख़ैर बात ही छोड़ दीजिए, ख़बरों की परिभाषा भी बदल दी गई। खेल बोले तो क्रिकेट हो गया। जनहित बोले तो सत्ताधारी दल का भोंपू। मनोरंजन बोले तो फिल्मों का प्रोमोशन। हिरोइनों के निजी संबंध। हिरोइनों के कपड़ों की नाप-जोख, नख-शिख वर्णन(टीवी का रीति काव्य)। सोप, सीरियल, धारावाहिक, द्विअर्थी संवादों से लोगों को विभत्स रस में भिंगोने वाले मसख़रे और उनकी आं-उं.., सबकुछ न्यूज़ बन गए। न्यूज़ की चौहद्दी से दूर जो रह गया वो ख़बरें थीं। वो जनहित से जुड़े सवाल थे।

कभी बोरवेल टीआरपी वाला साबित हुआ तो कभी किसी बेबस आदिवासी युवती का चीरहरण कांड। कभी पुलिस की लाठियां, तो कभी फायरिंग। कभी आशिक की पिटाई तो कभी पत्नी की हिम्मत। कभी अश्लील डांस और इसकी थू-थू की आड़ में पूरा का पूरा कोकशास्त्र ही प्रस्तुत कर दिया गया। जबकि इसी बीच कहीं कोई महिला न्याय के लिए अनशन पर बैठी और वहां से सीधे श्मशान जा पहुंची। मीडिया तक ख़बर ही नहीं पहुंची। मीडिया बहुत ज्यादा पिपुल्स फ्रेंडली हुआ तो टॉक शोज आ गए। चार चों-चों नेताओं को स्टूडियो में बिठा लिया। टॉपिक क्या, बस कुछ भी, कैसा भी। फिर आप ग़लत, मैं सही। मैं सही, आप ग़लत। इसी बीच नेताओं की थुक्कम-फजीहत, तू-तू, मैं-मैं, इनका इतिहास, उनका परिहास।

दिखने वाला बिकने लगा। माफ कीजिएगा, बिकने लगी। मीडिया में आजकल इसका भी बहुत क्रेज़ है। औरतों के मानसिक और सामाजिक आज़ादी की बात, थोड़ी पीछे रह गई। दिखने और दिखाने पर ज़ोर दिया जाने लगा। औरत प्रोडक्ट हो गई। औरत बाज़ार हो गई। औरत टीआरपी की सरदार हो गई। सरकार को भी मीडिया से आपत्ति तब होती है, जब वो किसानों के साथ विश्वासघात को उजागर कर देती है। मीडिया तब ख़तरनाक हो उठता है, जब वो भ्रष्टाचार या फिर ऐसे ही दूसरे दीमकों की तरफ कैमरा फोकस कर जूम करने लगता है। फिर मीडिया पर कंट्रोल के लिए नयी पॉलिसी और क़ानून की ज़रूरत महसूस होने लगती है। पूरी की पूरी श्रृंखला है। जो काम हिक्की और ह्यूम ने शुरू किया था, वो धीरे-धीरे प्रवृति बन गई। आज का मीडिया और एनजीओ वही सब कर रहे हैं। घोषित कर्तव्य वही पुराना है, अघोषित एजेंडे पर काम हो रहा है। ख़ैर, अगर इन बातों में उलझे तो पूरा उपन्यास तैयार हो जाएगा। हरि अनंत हरि कथा अनंता वाली स्थिति है।

हिन्दुस्तान में मीडिया अपने शुरूआती दौर से लेकर अब तक कई युग, कई रंग और कई रूप ग्रहण कर, छोड़ चुका है। गति को अभी विराम नहीं लगा है। इतिहास के आलोक में उम्मीद बस इतनी सी कि मीडिया फिर से बदलेगा। अभी भले ही इस बुद्धु बक्से और कागज़ के पन्नों पर मुट्ठी भर लोगों का अवैध कब्जा हो। लेकिन बदलाव की उम्मीद बेमानी नहीं है। सरकार, कॉर्पोरेट और मीडिया मुग़लों के हित। इन तमाम चीज़ों को झेलता पत्रकार या मीडियाकर्मियों का बड़ा तबका, कल भी बेचैन था, आज भी है। बस इंतज़ार इतना सा कि शंख इनके हाथ लगे। शंखनाद में समय नहीं लगता।

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