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ये क्या जगह है दोस्तों…?

पर्दा
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होली अपनी सतरंगी छटा बिखेरती हुई यूं निकल गई कि पता भी न चला। कई दोस्त तो तमाम विघ्न-बाधाओं को पार कर, घर भी गए थे। लौटे तो सब-के-सब रंगों में सराबोर। ऐसी बात नहीं कि कपड़े नहीं बदले गए थे। जिस्मों पर कपड़े बिल्कुल साफ और धुले-धुले ही थे, लेकिन मन पर चढ़ा फागुन का रंग बहुत गाढ़ा था। अपनी-अपनी कहानियां थीं, अपने-अपने रंग-ढंग और इलाकों में खेली जानेवाली होली की परंपरागत विशिष्टताएं भी।

हम दोस्तों की मेहरबानी से मथुरा गए, वृंदावन, काशी, मिथिला, छपरा, देवरिया…न जाने कहां-कहां भटकते रहे, रंगों की सतरंगी बरसात में भींगते रहे। इसी झोंक में न जाने कब उत्तर प्रदेश के जनपद शाहजहांपुर जा पहुंचे। उत्साही भीड़, भैंसा गाड़ी, ढोल-नगाड़ा.., रंगों की बारिश। पूरा शहर लाट साहब की भैंसा गाड़ी के आगे-पीछे होड़ ले रहा था। आव देखा न ताव, लपका और मैं भी लाट साहब की भैंसा गाड़ी के पीछे हो लिया। रंग यहां भी वही थे, जो दूसरी जगहों पर लगाए जाते हैं। लोग भी वैसे ही थे- हाथ-पैर, मुंह-कान… लेकिन रंग-ढंग बिल्कुल अलग।

लाट साहब की कथा सुनी, उसका हाल देखा तो दिल मुंह को आ गया। पता नहीं अचानक से तमाम रंग कहां गायब हो गए! दशकों पुरानी परंपरा है। होली के दिन एक व्यक्ति लाट साहब बनता है। उसकी ख़ूब आव-भगत होती है। भैंसा गाड़ी पर कुर्सी और कुर्सी पर लाट साहब। अगल-बगल अर्दली कह लें या बॉडीगार्ड।

शाहजहांपुर नगर कोतवाल से लाट साहब के जुलूस की विधिवत् शुरूआत होती है। नगर कोतवाल 501 रूपये के साथ लाट साहब को 21 जूते मारते हैं और यहीं से ये दारुण सिलसिला शुरू हो कर, पूरे शहर में फैल जाता है। जुलूस की शक्ल में लाट साहब नगर भ्रमण करते हैं, जूते-चप्पलों की बौछार झेलते हैं। यह अलग बात है कि लाट साहब के सिर पर हेलमेट और जिस्म पर सुरक्षा कवच टाइप का कुछ होता है, ताकि ज्यादा चोट न लगे।

मित्र ने बताया, पुरानी परंपरा है। कभी यहां कोई अंग्रेज लाट साहब हुआ करता था जो निरंकुश और बदमाश था। लोगों को बहुत परेशान और प्रताड़ित करता था। लेकिन कुछ साल बाद इत्तेफाक से उसकी लाट साहबी चली गई। नगर की कमान किसी शक्तिशाली हिन्दू के हाथ आई तो उसने लाट साहब की करतूत से त्रस्त जनता को संतुष्ट करने के लिए ये परंपरा शुरू की। तभी से हर साल एक ऐसे ग़रीब मुसलमान(!) की तलाश की जाती है, जिसे पैसे की ज़रूरत हो। उसे लाट साहब बनाया जाता है। जमकर खातिरदारी होती है। जूतों के साथ-साथ रूपयों की सलामी भी मिलती है। शहर के सहृदय(!) व्यापारी बेचारे लाट साहब के साल भर के राशन-पानी का बंदोबस्त भी कर देते हैं।

परंपरा तो वाकई अच्छी है। अंग्रेज़ों के दमन-शोषण के खिलाफ स्वाभिमान का प्रतीक है ये लाट साहब का जुलूस। अब अंग्रेज तो हैं नहीं देश में.., लेकिन चूंकि परंपराएं इतिहास का एक बड़ा हिस्सा अपने साथ संजोए रखती हैं। लिहाजा परंपरा को जीवित रखना भी हमारा फ़र्ज़ बनता है। वैसे भी इसमें बुराई क्या है? एक ग़रीब को कुछ रूपये मिल जाते हैं। साल भर के राशन-पानी का बंदोबस्त हो जाता है। यानी परंपरा भी बनी रही और किसी ग़रीब का भला भी हो गया। लेकिन पता नहीं क्यों, मैं अपने ही तर्कों से संतुष्ट नहीं हो पा रहा हूं!

लाट साहब का रोल अदा करने वाला कोई ग़रीब ही क्यों? सिर्फ मुसलमान ही क्यों? ये किस तरह की सहृदयता है, जिसमें मदद के बदले क़ीमत वसूली जाती है? ढोंग तो ढोंग ही है, नगर का कोई भी युवक या व्यक्ति, इस काम को बख़ूबी अंजाम दे सकता है। चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। क्योंकि होली सिर्फ हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी खेलते हैं। किसी ग़रीब की मदद तो अच्छी बात है और ये काम यूं भी हो सकता है। उसके लिए, उसको लाट साहब बनाकर, जूते मारते हुए शहर में घुमाना ज़रूरी तो नहीं!

कहीं ऐसा तो नहीं कि लाट साहब के बहाने मुसलमान और ग़रीबी का मज़ाक उड़ाए जाने की परंपरा है यह? अंग्रेज़ों के अत्याचार के बजाय मुसलमानों से नफ़रत करने वाले किसी खाए-अघाए संकीर्ण मानसिकता वाले व्यक्ति ने तो शुरू नहीं की ये परंपरा? पाशविक वृत्ति को छुपाने के लिए सहृदयता का ये ढोंग तो नहीं? अचरज की बात ये कि नगर कोतवाल से शुरू होती है जूते मारने की ये परंपरा! दोस्त बहुत उलझन में हूँ। तुम्हीं ने उधार दी है ये बेचैनी, तुम्हीं कोई उपचार भी बताओ। रंग कहीं सड़े पानी में तो नहीं घोल दी थी, ज़रा देखो तो सही। कुछ बदबू जैसा महसूस हो रहा है।

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