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दो ग़ज़लें

पर्दा
पर्दा
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दोनों ही ग़ज़ले गुजरात दंगों के दौरान लिखी गई थीं और 2005 में समकालीन सोच के जनवरी-अगस्त अंक में छपी थीं। आज अचानक पत्रिका पर नज़र पड़ी तो सोचा दोस्तों की नज़र करूं। अब एक बार फिर लिटमस टेस्ट का मौका है, एक गुमनाम शायर और उसकी शायरी के लिए… और हां, तब क़लमी नाम की ख़ब्त भी थी। तब यानी उस वक़्त जनाब अकबर साहब साहिल हुआ करते थे।

(1)

गर्द-ए-दहशत और लुटा चमन है निगाहों में

देखिए क्या-क्या और हैं ज़ेहन के पिटारों में

बस्तियां वीरान हैं, घर सन्नाटे में डूबा है

जो देखनी है रौनक, तो चलिए क़त्लगाहों में

ख़ौफ़जदा आँखें, ज़र्द चेहरा और थर्राया ज़ेहन

सहमी-सहमी सी सरगोशियां उभरती हैं रातों में

मां की ममता से जब दरिंदे हार गए

सुला दिया बच्चे को मां की बाहों में

मसीहा ने किया ऐलान सूबे में अमन है

बस थोड़ा सा ग़ुस्सा बाकी है रज़ाकारों में

सच की जीत तो अब ख़्वाबों की बात है

कि शामिल मुन्सिफ भी हैं गुनहगारों में

मजमा छोड़ कहां जाते हो साहिल मियां

नज़ारे और भी हैं, बाकी बचे पिटारों में

(2)

ज़ुबां खामोश रख, जो है यहां रहना

यहां जुर्म है, सच को सच कहना

वो हाकिम हैं, हक़ ही की बात करेंगे

तुम्हारा फ़र्ज़ है, हाथ बांधे खड़े रहना

बाग़-ए-मुसर्रत के फूल पर, है उन्हीं का हक़

आबाई उसूल है तेरा.., दर्द सहना

उनके दिए ज़ख़्म को, ज़ख़्म कहना है गुनाह

तुम्हें लाजिम है, ज़ख़्म को मरहम कहना

उनके लिए आंखों से टपकते लहू को

बड़ा आसान है बरसता सावन कहना

गुजरता है नागवार बहुत समंदर को

साहिल तेरी हस्ती का बने रहना

(समकालीन सोच, जनवरी-अगस्त 2005)

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