Menu
blogid : 9789 postid : 47

गांधी बेवकूफ नहीं थे

पर्दा
पर्दा
  • 46 Posts
  • 343 Comments

टीम अन्ना या फिर अन्ना हजारे जिस तरह से उग्र और अड़ियल रुख़ अख्तियार किए हुए हैं। उससे उनकी अपनी छवि को ही नुकसान पहुंच रहा है। वैसे भी जब अन्ना ने आंदोलन की शुरूआत की थी, तब कुछ लोगों ने जो आशंकाएं जाहिर की थीं। वह बाद के वक्त में एक-एक कर सच साबित होने लगीं। नतीज़ा भी सामने है। अब वैसा समर्थन उन्हें नहीं मिल पा रहा है, जैसा कि पहली बार रामलीला मैदान में नज़र आया था। अभी जंतर मंतर पर बस मुट्ठी भर लोग ही थे।

ख़ैर, हमारी इस बात में दिलचस्पी नहीं कि लोग कितने थे? भीड़ से मोटिव तय नहीं होता। हम ये भी जानते हैं कि व्यवस्था अपने-आप में एक असहिष्णु टूल है और वो अपने हित साधन के लिए किसी भी स्तर तक जा सकती है। लेकिन बाद के दिनों में जिस तरह से टीम अन्ना के सदस्यों ने अनर्गल बयान और भदेस भाषा को आलिंगनबद्ध किया, उसने मेरा भी बहुत हद तक मोहभंग कर दिया है।

व्यवस्था तो चाहती ही है कि उसके विरोधी अपना आपा खोएं, ताकि उन्हें ठिकाने लगाने में आसानी हो। टीम अन्ना ने उन्हें एक-से-बढ़कर-एक मौका भी दिया है। दूसरी बात ये कि जब आप खीरे की चोरी को जस्टिफाई करने लगते हैं तो फिर हीरे की चोरी पर चिल्ल-पों का हक़ भी खो देते हैं। हालत ये है कि जितने लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का दावा कर रहे हैं। उनमें से ज्यादातर के दामन पर दाग-धब्बे हैं। ऐसे में ये तय करना बेहद मुश्किल है कि कौन सही और कौन ग़लत। साधन की शुद्धता भी तो कोई चीज़ होती है ना!

आपके सामने दो उदाहरण रखता हूं। हालांकि दोनों का अन्ना या उनकी टीम से कोई संबंध नहीं है।

दोनों ही उद्योगपति हैं। दोनों झारखंड से राज्यसभा पहुंचना चाहते थे। एक को बीजेपी ने खड़ा किया था और दूसरा अपने बलबूते दांव दे रहा था। जब तक उम्मीद थी, अंशुमान खुद को देशभक्त और साधु-सन्यासी की श्रेणी में रखते रहे। ब्रह्मतेज के दावे करते रहे। उम्मीद धूमिल पड़ने लगी तो यशवंत सिन्हा और लालकृष्ण आडवाणी को भला-बुरा कहना शुरू कर दिया। और अंत में खुद को दलाल साबित कर, अमेरिका लौट गए (उन्होंने दावा किया था कि मुरली मनोहर जोशी की मीटिंग उनलोगों के साथ फिक्स करवाई थी, जो टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में आरोपी हैं)।

आर के अग्रवाल ये दावा करते घूमते रहे कि उद्योगपति भी ईमानदार हो सकते हैं। सभी एक जैसे नहीं होते और देखिए कि चुनाव के दिन ही उनके भाई की गाड़ी से सवा दो करोड़ रूपये मिले और चुनाव को भी रद्द करना पड़ा। कहने के मतलब ये कि हमारे देश में ऐसे ही देशभक्तों और मनीषियों की भरमार है। जब आप छोटे लाभ के लिए लार टपका सकते हैं तो क्या गारंटी है कि बड़ा अवसर मिला तो साधु बन जाएंगे?

मुझे लगता है कि इस बाबत ज्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। हमारे पाठक न सिर्फ जागरुक हैं, समझदार हैं, बल्कि हकीकत को जांचने-परखने का हुनर भी रखते हैं। आंदोलन तभी तक आंदोलन रहता है, जब तक हुल्लर और हुड़दंग न हो.., गांधी बेवकूफ नहीं थे, जो एक्सट्रीम से पहले ही आंदोलन वापस ले लिया करते थे।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply