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लाल किले में बाज… पहली किश्त

पर्दा
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ममता बनर्जी ने 20 मई 2011 को सत्ता संभाली। इस तरह 34 साल के लंबे अंतराल के बाद रॉयटर्स बिल्डिंग का रंग लाल से हरा हो उठा। राजभवन में शपथ के बाद ममता ने रॉयटर्स बिल्डिंग तक पैदल मार्च कर अपने एथलीट होने का परिचय दिया और दशकों तक संघर्ष के बाद मिली सफलता को वाजिब सम्मान दिया। ममता ने पश्चिम बंगाल की डंवाडोल आर्थिक नैया को संभालने की भरसक कोशिश की है, कर रही हैं। केन्द्र से मदद के साथ ही यूपीए सरकार को आँख दिखाने तक का काम वह बखूबी कोलकाता से भी कर रही हैं।(रेल बजट पर हाय-तौबा और दिनेश त्रिवेदी एपिसोड)

ममता बनर्जी के राजनीतिक संघर्ष की दास्तान बड़ी लंबी है। बड़ी ही संघर्षशील, जुझारू और हिम्मती महिला नेत्री रही हैं। कम्यूनिस्टों के गढ़ में कांग्रेस के बैनर तले राजनीतिक जीवन और संघर्ष की शुरूआत करने के बाद अचानक मोहभंग और तृणमूल कांग्रेस के गठन से लेकर कम्यूनिस्ट पार्टी के सांगठनिक ढांचे और वोट बैंक में सेंधमारी तक। शांतिपूर्ण और रोषपूर्ण ही नहीं बल्कि हिंसापूर्ण संघर्षों तक।

ममता ने कभी हिम्मत नहीं हारी। उनके प्रजा हितैषी और आत्मीय रुख़ ने विचार और सर्वहारा हित की बात करने वाली कम्यूनिस्ट पार्टी के 34 साल तक अभेद्य बने रहे दुर्ग को ढहाने में भरपूर सहयोग किया। निर्वाचन आयोग की सख्ती और राष्ट्रीय दलों के तमाम दांव-पेंच, जिस वर्गीय चेतना का दमन नहीं कर पाए, उन्हें ममता बनर्जी ने अपने दमखम के बल पर तहस-नहस कर दिया। 23 साल तक ज्योति बसु और उसके बाद बुद्धदेव ने राज्य की सत्ता संभाली। लेकिन कभी उन्होंने लोकतांत्रिक दायरे को तोड़ा नहीं। पद की मर्यादा बरकरार रही। यह बात उनके घोर विरोधी भी मानते हैं।

कांग्रेस जब जन-बल से कम्यूनिस्ट सरकार को डिगाने में असफल रही तो कानून व्यवस्था और राष्ट्रपति शासन की तलवार से चुनी सरकार का सिर कलम करना चाहा। हालांकि वह उस में सफल नहीं हो सकी। ममता ने कई बार आपा खोया, सत्ता-संघर्ष में नक्सलियों (माओवादियों) की मदद ली! चुनाव से पहले नक्सली हिंसा के लिए तो राज्य सरकार को कोसा, लेकिन नक्सलियों के ख़िलाफ़ कठोर कदम की जब बात आई तो उन्होंने बातचीत का नारा बुलंद किया। केन्द्र पर दबाव की कोशिश की। ऑपरेशन लालगढ़ आपको अब भी याद ही होगा। लेकिन सत्ता प्राप्ति के बाद उनका रुख़ अचानक बदल गया। (कारणों की पड़ताल का यह उचित मौका नहीं है। इस पर फिर कभी।)

कम्यूनिस्टों पर आरोप लगा कि पूंजीवाद के अंध-विरोध के कारण सत्ता में तीन दशकों से बने रहने के बावजूद राज्य का औद्योगिकरण नहीं हो सका, लिहाजा राज्य की जनता ग़रीबी और भूखमरी का शिकार बनी। बुद्धदेव ने टाटा ग्रुप के साथ एमओयू कर, औद्योगिकरण की ठोस पहल की, तो सिंगूर में आग लग गई। ममता के नेतृत्व में तृणमूल ने हिंसक संघर्ष तक का रास्ता तय किया। किसानों को चढ़ाया गया, बहकाया गया। दर्जनों लोगों की जानें गईं। कुछ पुलिस की गोली के शिकार हुए। सीपीएम कार्यकर्ताओं की क्रूरता का भी कुछ निवाला बने तो कुछ तृणमूल नेताओं की हिंसा के।

नौबत यहां तक आ पहुंची कि राज्य सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े। टाटा का नैनो प्लांट पश्चिम बंगाल से गुजरात रवाना हो गया। ये अलग बात है कि अब सत्ता प्राप्ति के बाद ममता की दिली इच्छा है कि टाटा चाहे तो उद्योग लगाए, सरकार सहयोग करेगी। यानी ममता बनर्जी भी वही करना चाहती हैं, जिसका उन्होंने अंतिम स्तर तक विरोध किया था।(यहां पर भी उस पूरा प्रकरण में विरोध और संघर्ष का कारण बतलाने की ज़रूरत नहीं है।)

ममता जनता के बीच संघर्ष में हमेशा खड़ी रहीं। जाड़ा, गर्मी या बरसात। गांव, शहर या क़स्बा। गली-कूचे और खेत-खलिहान तक वह ख़ुद आती-जाती रहीं। हर एक की ज़रूरत और संवेदना का मान रखा। दशकों का संघर्ष, कमज़ोर नीतियां और बहुत कुछ मोहभंग की स्थिति ने लालगढ़ को तृण-तृण कर दिया।

जारी…

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