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लाल किले में बाज (दूसरी किश्त)

पर्दा
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बकौल स्वेतलाना अलिलुयेवा(स्टालीन की बेटी), सत्ता का चरित्र अपने आप में निरंकुश होता है। इसकी अपनी विचारधारा होती है। सत्ताशीर्ष पर बैठा व्यक्ति सत्ता संचालित सूत्रों का मात्र अनुशरण करता है। भारतीय सत्ता परिप्रेक्ष्य, राष्ट्रीय दलों और यहां तक कि छोटे और क्षेत्रीय दलों के नेता और क्षत्रपों का व्यवहार और विचार, इस तथ्य को बिल्कुल सहज तरीके से परिभाषित करते हैं। बिहार की सत्ता पर काबिज रहे लालू प्रसाद, काबिज नीतीश कुमार। उत्तर प्रदेश में पांच साल का मायावती राज हो या कि पश्चिम बंगाल में सत्ता का पहली बार स्वाद चख रहीं ममता बनर्जी का रवैया और सोच। सभी एक ही कहानी कहते हैं।

सत्ता संभालने के बाद पहला प्यार औद्योगिक घराने के लिए जगा। नक्सलियों की व्यथा-कथा को समझने और उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से मुख्य धारा में लौटा लाने का अदम्य साहस रखने वाली ममता का मुंह नक्सली शब्द सुनते ही अचानक कसैला होने लगा। जिस मीडिया ने उनकी लोकप्रियता का मार्ग प्रशस्त किया और उनके छोटे-मोटे बेसिर-पैर के बयानों और संघर्षों को भी महान क्रांति टाईप का आवरण देकर, उन्हें आयरन लेडी की उपाधि दी, वह अब उनकी नज़र में बिल्कुल फालतू और झूठी हो गई।

मुख्यमंत्री बनने के बाद कथित तौर पर दिवालिया राज्य के लिए आर्थिक मदद की खातिर ममता दिल्ली दरबार गईं और आंचल पसारा। उसी राज्य में सरकारी न्यूज़ चैनल और अख़बार निकालने की घोषणा कर दी गई। विधानसभा चुनाव में जीत के बाद अपनी उदारता का परिचय देते हुए शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने कम्यूनिस्ट नेताओं को भी दावत दी थी। लेकिन 10-11 महीना बीतते-बीतते वही नेता उनके लिए अछूतों की श्रेणी में शुमार हो गए।

मायावती पार्कों और प्रतिमाओं के कारण बदनाम हुईं। तमाम आरोपों-प्रत्यारोपों के बावजूद मायावती ने कभी ऐसा तुगलकी फरमान जारी नहीं किया था जैसा कि ममता बनर्जी ने किया है। ममता बनर्जी को अब कम्यूनिस्ट शब्द से चिढ़ हो गई है। वैचारिक भिन्नता अब व्यक्तिगत स्तर तक जा पहुंची है।

तृणमूल की सुप्रीमो ने पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों को निर्देश जारी किया है कि वह कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता, कार्यकर्ता या समर्थक के साथ किसी भी तरह का रिश्ता नहीं रखें। शादी-ब्याह की बात तो दूर, चाय की दुकान पर भी मुलाकात हो जाए तो वहां से हट जाएं या बातचीत से परहेज बरतें। यानी कम्यूनिस्टों का सामाजिक रूप से बहिष्कार करें।

स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रमों में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया गया है। अब मार्क्स और एंगेल्स जैसे चिंतकों की जीवनी और परिचय को सिलेबस से बाहर कर दिया गया है। यानी मार्क्स, मार्क्सवाद और मार्क्सवादी, पश्चिम बंगाल में अब त्याज्य हैं, हेय हैं।(वैसे ये ममता की कितनी बड़ी महानता है। तय तो इतिहास ही करेगा।)

ममता का मीडिया प्रेम किसी से छुपा नहीं है। रेलवे मिनिस्टर रहते उन्होंने इस क़ौम पर खास मेहरबानी भी की थी। लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद जब उनके तुगलकी फरमानों का विरोध होने लगा तो उनका ये मीडिया प्रेम, अचानक नफ़रत और खीझ में बदल गया। अब पश्चिम बंगाल की जनता को ये नसीहत दी जा रही है कि वह मनोरंजन चैनल देखें। न्यूज़ चैनल झूठे होते हैं, उन्हें देखने की ज़रूरत नहीं है। न्यूज़ चैनल उनकी सरकार और नीतियों को बेवजह बदनाम करने की कोशिश कर रही है। और तो और जनता के हित में जल्दी ही तृणमूल अपना न्यूज़ चैनल और अख़बार शुरू करेगी।

जिस ममता बनर्जी ने कभी अभिव्यक्ति की आज़ादी को अहम माना था और कम्यूनिस्ट सरकार पर विरोधियों के दमन का आरोप लगाया था। उन्हें अब कार्टूनिस्टों से भी डर लगने लगा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें खटकने लगी है। रेल बजट पर एक कार्टून के कारण उन्होंने एक बौद्धिक कार्टूनिस्ट की नौकरी छीन ली। उनका ये भी कहना है कि सोशल साइट्स लोकतंत्र के लिए ख़तरा हैं। इस पर अंकुश लगना चाहिए।

यानी जिन-जिन कारणों और सोचों ने ममता को लोकप्रिय बनाया। सत्ता का स्वाद चखाया। वह सब अब उनकी नज़र में कड़वे, कसैले और हेय हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता ने जनवादी और संघर्षशील ममता का मस्तिष्क हाईजैक कर लिया है। पश्चिम बंगाल की कुर्सी पर जो महिला बैठी है, वह ममता बनर्जी नहीं है! यह कोई और ही महिला है!

हिटलर के सींग तो थे नहीं, फिर लोग उसके बारे में जब भी बातें करते हैं तो मुँह अजीब सा क्यों बनाते हैं? विवेक आने के बाद ही से सोचता रहा हूँ। तुगलकी फरमान जैसे शब्द को लेकर भी दो दशकों से पशोपेश में रहा हूं। लेकिन ममता बनर्जी के कारनामों ने दोनों का अर्थ और कार्य संस्कृति को स्पष्ट कर दिया है। पश्चिम बंगाल में अंधेर नगरी जैसी स्थिति बन रही है। मीडिया नापसंद, कम्यूनिस्ट नापसंद, मार्क्स नापसंद, कार्टूनिस्ट और बुद्धिजीवी नापसंद। कल को जनता भी नापसंद। तो क्या ममता बनर्जी जनता भी बदल देंगी या कि उसका भी उपचार किसी फरमान के ज़रिए होगा?

ममता बनर्जी के संघर्षशील व्यक्तित्व का मोहपाश, उनकी सादगी और जनहित वाली सोच का मैं भी शिकार रहा हूँ। लिहाजा झटका मुझे भी लगा है। अब जबकि एक-एक कर केंचुल उतारे जा रहे हैं। सत्ता अपना जादूई असर दिखा रही है। ममता का व्यक्तित्वांतरण हो रहा है। सोच बदल रही है। दायरा तोड़ने को आतुर महिला अब दायरे में बंध और बांध रही है तो मैं ये सोचने पर विवश हूँ कि क्या तमाम नेता एक ही जैसे होते हैं? क्या सत्ता का चरित्र कभी नहीं बदलता? क्या व्यवस्था परिवर्तन बस पात्र परिवर्तन को कहते हैं? मुझे लगता है काशीनाथ सिंह के लाल किले का जो बाज़ है, यह उसी का आधुनिक विस्तार है।

वैसे मेरी याददाश्त और जानकारी सही है तो हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर पांच साल बाद चुनाव का प्रावधान है। कहीं ऐसा न हो कि इतना कुछ नापसंद करने वाली मुख्यमंत्री और नेता जनता को पसंद न आए और वह भी कोई फरमान सुना दे! ख़ैर, ये तो बाद की बात है।

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