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कठपुतली नाच वाया अन्ना बाबा

पर्दा
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एक अन्ना थे। एक बाबा थे। धारणा के विपरीत बाबा जवान थे। धारणा के विपरीत अन्ना बूढ़े थे। दोनों अपनी-अपनी कुटिया में रहते थे। बाबा की जनता भक्त थी, नेता भक्त थे।हर छोटा-बड़ा, बाबा के इशारे पर कदमताल करता। हैंड्स अप और डाउन करता। सब के सब नतमस्तक होते। बाबा कसरती तो थे, लेकिन थे दुबले-पतले। भक्त समझते योग का बल है। जबकि बाबा राष्ट्र चिंता में तिल-तिल घुलते मंच पर उछल-उछल कर लोगों को मज़बूत बनाते। खाए-अघाए का देश था। काया थुल-थुल, चर्बीवाली। एक-एक शरीर में छोटी-मोटी दर्जनों बीमारी। प्राकृतिक उपचार पद्धति थी रामबाण। बाबा की कोशिश ने कई काया को बनाया कांचन। आने लगी बन आंधी माया। शिविरों में जब उमड़ी भीड़। देश चिंता में वह हुए अधीर। भानुमति का कुनबा जोड़ वह अश्वमेध को हुए विकल। नेताओं ने भौंह तरेरी। प्रतिष्ठा जो दी थी, वो झटके से ले ली। भ्रष्टाचार और फर्जीवाड़े का जो आरोप लगा तो वह बेहद घबराए। लौट गए फिर से कुटिया को। बहुत दिनों तक न बाहर आए।


अब कथा-वाचन को अल्प विराम देते हैं और सीधे मुद्दे पर आते हैं। अन्ना आंदोलन और रामदेव की महाक्रांति। दोनों अब शांत पड़ चुकी है। विश्लेषण अगर ग़लत नहीं तो दोनों की ही अकाल मृत्यु हो चुकी है। मैं किसके पक्ष में हूँ? किसके पक्ष में नहीं हूँ? या किसी के पक्ष में नहीं हूँ? यह बताना ज़रूरी नहीं है, क्योंकि मेरा पक्ष में होना या न होना, कोई खास मायने नहीं रखता। मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा हूँ जो सिर्फ दांत किटकिटाती है। लड़ नहीं सकती। वैसे मैं उस वक्त बहुत मुश्किल में पड़ गया था। जब रामलीला मैदान में एक बूढ़ा, जवानों को मात देता हुआ अनशन पर अड़ा था। देश हिल गया था। संसद चिंतित हो उठी थी। मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना का शोर था। जो अन्ना के साथ नहीं था, देशद्रोही था, चोर था।

अन्ना पर आरोप लगे। उन्हें आरएसएस से जोड़ा गया। टीम अन्ना ने अपनी निष्पक्षता साबित करने के लिए टोपी, धोती, क्रॉस और पगड़ी का प्रदर्शन किया। मुम्बई मुहिम तक कुछ नहीं, बल्कि बहुत कुछ गड़बड़ हो चुका था। भीड़ सरकती हुई पता नहीं कहां गुम हो गई थी। क्रेडिट को लेकर बाबा और अन्ना के बीच शीतयुद्ध का दौर भी चला। लोगों ने बुज़ुर्ग से अनशन करवाने के लिए केज़रीवाल एंड कम्पनी को भी कोसा। रामलीला कथा का जंतर-मंतर पर अंत हुआ। पार्टी गठन की घोषणा के साथ ही वीरानी और बढ़ गई। सरकार ने राहत की सांस ली। वैसे दल और लोग निराश हो उठे, जो अन्ना मूवमेंट के साइड इफेक्ट को लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार करने का साधन समझे बैठे थे।

टीम अन्ना का फेल्योर, बाबा रामदेव के लिए रामबाण साबित हुआ। वह दोबारा रामलीला मैदान पहुंचे। पहले कहा- मैं पार्टी या व्यक्ति के विरोध में नहीं हूँ। मैं व्यवस्था के खिलाफ हूँ। काला धन के खिलाफ हूँ। भ्रष्टाचार के खिलाफ हूँ। लेकिन जाते-जाते महाक्रांति का ऐलान कर गए। सीधा नारा ठोंका- कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ।

ये तो घटनाएं हैं, जिनसे आप भी वाकिफ़ हैं। लेकिन मेरे मन में कई सवाल हैं जो अरसे से कोंच रहे हैं। मसलन, अन्ना अचानक त्याज्य क्यों हो गए? ऐसा क्या किया उन्होंने कि आदरणीय, अनुकरणीय और सम्माननीय की पदवी राष्ट्रवादियों ने झटके से छीन ली? बाबा ने आखिर अपना प्लान क्यों चेंज कर लिया? पहले तो वही पार्टी बनाने की ज़िद पर अड़े थे! टीम अन्ना जो राजनीति को गलीज़ और संसद को भ्रष्ट और लुटेरों का अड्डा करार दे रही थी, अचानक पार्टी गठन पर आमादा क्यों हो गई? पार्टी गठन की खबर ने बीजेपी नेताओं की त्योरी क्यों चढ़ा दी? क्रांतिकारी अन्ना अचानक बुरे और मूढ़ कैसे हो गए? सबसे बड़ी बात ये कि रामदेव ने पार्टी नहीं बनाने की घोषणा अनशन से पहले क्यों की? गडकरी ने ये क्यों कहा कि रामदेव पार्टी नहीं बनाएंगे? टीम अन्ना के आंदोलन से सियासी दलों के नेता दूर क्यों रहे? रामदेव के मंच पर पूरा एनडीए क्यों उमड़ा? सोश्यल साइट्स पर अन्ना की शान में कसीदे पढ़ने-गढ़ने वाले लोग अचानक कहां गुम हो गए? क्या तमाम वस्तुस्थितियों के मद्देनज़र ये मान लिया जाए कि अन्ना आंदोलन और बाबा महाक्रांति के साथ जो अल्हड़ भीड़ थी, उसका बड़ा हिस्सा किसी खास पार्टी या संगठन के समर्थकों का था?

मेरी मंदबुद्धि जहां तक समझ पाई है, वो ये है कि टीम अन्ना के साथ युवाओं की बड़ी फौज थी। लोग पहले बिना किसी भेद और बोध के अन्ना के साथ जुड़े थे। इसमें संघी भाइयों की बड़ी तादाद थी। आरोप लगने के बाद और अन्ना और उनकी टीम के खंडन मंडन के बाद आरएसएस निराश हो गई और आपाधापी में वैसे युवा भी साइड हो लिए जो प्रगतिशील थे और अन्ना के साथ व्यवस्था के खिलाफ जंग में कूद पड़े थे। वैसे मोहभंग में टीम अन्ना के कुछ सियासी हथकंडों का भी योगदान रहा।

टीम अन्ना का मकसद मज़बूत लोकपाल है। सियासी दल दिल से इसके पक्ष में नहीं हैं। लेकिन इसका खुलकर विरोध, उनके लिए मुश्किल है। बीजेपी का मकसद भी लोकपाल नहीं, केन्द्र की सत्ता है। लेकिन टीम अन्ना अगर पार्टी बनाती है तो बीजेपी को नुकसान होगा। यानी बीजेपी की स्थिति चौबे से दूबे वाली होगी। सीधे शब्दों में कहें तो टीम अन्ना का पार्टी गठन का फैसला, बीजेपी की हार है। लिहाजा उसने रामदेव को आगे कर दिया है। यानी शुरुआती दौर में टीम अन्ना तो अब लंगोट बाबा बीजेपी के मोहरा हैं।

बड़े ही अचरज वाली बात है कि रामदेव के मंच पर जिस किसी दल का व्यक्ति पहुंचा। जिस किसी दल ने रामदेव की सुर में सुर मिलाए, उसे बाबा ने ईमानदार करार दे दिया है। यानी भ्रष्टाचारी वही है, जो रामदेव के साथ नहीं है। काला धन उसी के पास है जो बाबा के साथ नहीं है। यानी कांग्रेसियों को छोड़, किसी दूसरे के पास कालाधन नहीं है और केन्द्र को छोड़ कहीं और भ्रष्टाचार नहीं है। अब तक का सबसे शानदार सियासी प्रहसन अभी जारी है। चोर एकजुट होकर, चोर-चोर चिल्ला रहे हैं। जनता हतप्रभ है। मुखौटों की मदद से सियासी जंग लड़ी जा रही है। नाम जनांदोलन दिया जा रहा है।

सच तो यह है कि बीजेपी को एक ऐसे तारणहार की जरूरत है जो अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता की राह आसान कर सके। टीम अन्ना ने कठपुतली बनने से इनकार कर दिया तो बाबा ही एकमात्र सहारा बचे हैं। कुछ भी अप्रत्यक्ष नहीं बचा है। सवाल तो ये भी है कि बीजेपी की सरकार बन भी गई तो विदेशों में जमा काला धन कैसे वापस लाएगी? वह फुलप्रूफ प्लान के साथ सामने क्यों नहीं आती? पब्लिक सबकुछ जानती है। ये अलग बात है कि अक्सर वो चुप रहती है।

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