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गुमशुदा आवाज़

पर्दा
पर्दा
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“साहब मैं पटना से बोल रहा हूँ। आपसे कुछ भी नहीं छुपाउंगा। बिल्कुल सच बताउंगा। मैं लव मैरिज करने के बाद अब पछता रहा हूँ। बीवी ब्लैकमेल कर रही है। उसका किसी और के साथ संबंध है। मेरे पास वीडियो फुटेज है। फोन की रिकॉर्डिंग भी है। चाहकर भी विरोध नहीं कर सकता। खुदकुशी की धमकी देती है। दहेज-प्रताड़णा का मामला बनाने और जेल भिजवाने की धमकी देती है। पुलिस को बता नहीं सकता। घरवाले पहले से ही खार खाए बैठे हैं। अंतिम उम्मीद आप ही हैं।” मैं सुनता हूँ। ठीक वैसे जैसे यह रूदाद काठ के उल्लू को सुनाई जा रही हो। उसके चुप होने पर हल्ला बोल का नियत समय बतलाता हूँ। थोड़ी सी ढांढ़स देता हूँ और फोन कट।

“सर औरंगाबाद के फलां गाँव में घर है। स्कूल जाते वक्त गांव के ही कुछ दबंग उठा ले गए थे। घंटों गैंगरेप के बाद बेटी को यूँ ही सड़क किनारे फेंक गए थे। पुलिस कम्पलेंट नहीं लिख रही है। मेडिकल भी नहीं करा रहे हैं। बेटी की हालत नाज़ुक है। अस्पताल में भर्ती है। प्लीज़ कुछ कीजिए। अपने रिपोर्टर को भेज दीजिए।” हम परेशान हो उठते हैं। रिपोर्टर भागा-भागा अस्पताल जाता है। न्यूज़ कवर करता है। कैमरा देख पुलिस एक्टिव होती है। मामला दर्ज होता है। हम व्यवस्था, पुलिस और समाज के इस खास क़िस्म की कौम को सभ्य शब्दों में गालियाँ देते हैं।

पेट्रोल के दाम बढ़ने पर हम ही चिंतित होते हैं। डीज़ल की क़ीमत से जनता बाद में पहले हम त्रस्त होते हैं। महंगाई की मार। भ्रष्टाचार और सियासी व्यभिचार के ख़िलाफ़ जो ज़ुबान खुलती, बोलती या चीख़ती है। हमारी ही होती है। हर एक आपराधिक घटना की बारीकी से पड़ताल। कार्रवाई नहीं होने पर पुलिस की थू-थू। अस्पताल में मरीज़ की मौत पर आँसू से लेकर स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही। शिक्षा,शिक्षक और छात्र की हालत से लेकर मजदूरों के कम वेतन और शोषण तक से परेशान हम ही तो होते हैं।

रिटेल में एफडीआई के आने से परेशान व्यापारी भी हमारी तरफ ही उम्मीद से देखते हैं। उनकी आवाज़ बुलंद करनी है। उन्हें न्याय दिलाना है। साजिशों को बेपर्दा करना है। अन्ना अच्छा कर रहे हैं। उनको फुटेज देना है। फलाँ की बच्ची या बच्चे ने अच्छा काम किया है । थोड़ा सा स्पेस देंगे तो उत्साह बढ़ेगा। किसी गुदड़ी के लाल ने कमाल किया है। जगह दो, दूसरों को भी हौसला मिलेगा।

वाडरा की चीटिंग। बीजेपी का दोमुँहा चरित्र। वामदलों का चुप्पापन। 2-G, 3-G, COAL और न जाने क्या-क्या। किस्सा-कोताह यह कि मीडियाकर्मी हैं तो सारे जहां का दर्द आप के ही जिगर में होगा। कूली के अमिताभ की तरह सारी दुनिया का बोझ आप ही के कंधे पर है।(कंधा चाहे कितना ही कमज़ोर हो, क्या फर्क पड़ता है। यह भी तो पेशा है।)

लोग गालियाँ भी देते हैं। अब तो दलाल तक की संज्ञा मिलने लगी है। चैनलों की पार्टियां लोगों ने तय कर दी हैं। स्वनामधन्य पत्रकारों की पक्षधरता का ढोल भी अब  ख़ूब बजता है। धारणा यह भी है कि मीडिया में पैसा बहुत है भाई। लेकिन रुकिए अभी आप दुकान का सिर्फ फ्रंट साईड ही देख पा रहे हैं। रिसेप्शन पर दमकती सी गुड़िया। सामने पड़े दो-तीन शानदार सोफे और फर्श पर बिछी कालीन भ्रम है। हकीक़त का जो तलघर है ना, वो बहुत ही गंदला और बदबूदार है।

पता नहीं यह इकोनॉमिक डिप्रेशन की कारस्तानी है या मालिकान का शोषक रवैया? चैनल घाटे (भले ही विज्ञापनों की भरमार हो) में ही चलते हैं। मीडिया मजदूरों (मीडिया मुग़लों की हालत माशा अल्लाह बहुत अच्छी है।) की तन्ख्वाह इतनी कभी नहीं हो सकती कि वह अपनी बुनियादी ज़रूरतों को ठीक से पूरा कर सके। (अब मीडिया में आ ही गया है तो क्या जाना! देखें, कभी-न-कभी तो दिन बहुरेंगे ही!)

कल-कारखानों में लेबर यूनियन हैं। मांगें नहीं मानी जाएंगी तो हड़ताल कर देंगे। लेकिन मीडिया मजदूरों का कोई यूनियन नहीं होता। ज़रूरत के हिसाब से काम का घंटा बढ़ भी सकता है।(घटने की गुंजाईश नहीं है क्योंकि वेतन कट सकता है।) धोखे से किसी गुस्ताख़ ने क्रांति का बिगुल फूंक ही दिया है तो कोई बात नहीं। उसकी अकाल मृत्यु तय है। यहां से निकाला जाएगा और फिर कहीं भी नौकरी नहीं पाएगा। मीडिया की दुनिया बहुत छोटी है। मीडियाकर्म से जुड़ी बड़ी हस्तियों में पुराना याराना है।

आप कहेंगे मीडिया संस्थानों के मालिक ही कसाई होंगे। होते होंगे! उनसे मीडिया मजदूरों का साबका ही कितना या कब पड़ता है! सैलरी से लेकर नौकरी तक मीडिया का बुद्धिजीवी यानी ऊपरी तबका ही तो तय करता है। वही जो एक्सपर्ट के तौर पर टॉक शोज में सबसे ज्यादा चिंतित और उत्तेजित नज़र आता है। भूल-ग़लती बर्दाश्त नहीं। मीडिया पर अंकुश से भी बेचैनी होती है। चैनल के लिए तय सिक्यूरिटी मनी में इजाफा जिसे परेशान कर देता है। वही जब मीडिया मजदूरों के शोषण की बात उठती है तो मुखर मौन धारण कर लेता है।

मीडिया मजदूर, मरता-झींकता, खौलता-गलता, आपके दर्द को ज़ुबान देता, ज़ोर-ज़ोर से चीखता रहता है। इस चीख़ में सिर्फ पेशागत मजबूरी नहीं, एक दूसरे क़िस्म की टीस भी होती है। शायद वह अपना दुख भी, उन तमाम लोगों के दुख से जोड़ लेता है। तभी तो शोषण, दलन और दोहन की अविरल धार में किसी तरह पैर जमाए हौसले के बूते टिका रहता है। जब वह स्क्रिप्ट लिखता है तो जो शब्दों का पैनापन और धार आप देखते हैं न, उसमें भी यही टीस शामिल रहती है।

वैसे आप यह सब जानकर क्या करेंगे? यह नालों की वैसी गुमशुदा आवाज़ें हैं, जो न कहीं से उठती हैं और न ही कहीं पहुंचती हैं। सिर्फ राख के भीतर दबी आग की मानिंद गुपचुप सुलगती रहती हैं। हम जानते हैं। आप इन्हें दधिचि नहीं मानेंगे।

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