Menu
blogid : 9789 postid : 102

ग़ुलामी

पर्दा
पर्दा
  • 46 Posts
  • 343 Comments

महारथी.., तुमने तो कमाल कर दिया! वातावरण से कटु प्रश्नों के तमाम कीटाणु तुमने पलक झपकते ही साफ कर दिए। हमारे चिंताओं का पूर्णतः लोप हो गया है। अब कहीं से भी विरोधी स्वर सुनाई नहीं देते।

प्रजा वत्सल, यह सब तो आपकी बौद्धिक सोच और मार्गदर्शन का ही परिणाम है। हमने तो केवल उसका पालन किया है।

नहीं-नहीं महारथी.., तुम तो हमारे सबसे योग्य दरबारी हो। तुम से पहले, मैंने कई दरबारियों को प्रजा के मस्तिष्क को साफ करने का निर्देश दिया था। लेकिन वे असफल रहे। प्रजा उन प्रश्नों का और भी ज़ोर-ज़ोर से जाप करने लगी थी। लेकिन अब देखो, बिल्कुल शांति है।
प्रजा वत्सल, शेष दरबारियों की विफलता का कारण यह था कि उन्होंने प्रश्नों के उत्तर देने के प्रयास किए थे।
अच्छा!!… और तुमने क्या किया?
मैंने कुछ दूसरे प्रश्नों को जन्म दिया और उन्हें प्रजा के प्रश्नों में घुला-मिला दिया।(महारथी मुस्कराता है)
(राजा भी मुस्कराता है)… अच्छा-अच्छा! मतलब तुमने प्रजा के प्रश्नों की गुपचुप हत्या करवा दी?
हां, प्रजा वत्सल.., अब प्रजा के मस्तिष्क में कोई भी प्रश्न जीवित नहीं… वहां कुछ शव हैं और सन्नाटा है। बिल्कुल ब्लैक-आउट वाली स्थिति है। उनकी सीमाओं और क्षमताओं का पता हो जाने के बाद उन्हें नियंत्रित करना, अधिक कठिन कार्य नहीं था। अब सभी पहले की ही तरह आटा-चावल, तेल और कपड़े से अधिक सोच पाने की स्थिति में नहीं हैं।
तुम्हें इस महान कार्य के लिए राजसत्ता पुरस्कृत करेगी- महारथी। लेकिन यह विवेक तुम्हारे अंदर कहां से पनपा? न-न, तुम्हारी योग्यता पर तो विश्वास है.., केवल जिज्ञासावश पूछ रहा हूँ।
प्रजा-वत्सल… आप तो जानते ही हैं कि आइडिया चोरी का कीर्तिमान हमारे ही नाम है। अभी कुछ दिनों पहले ही हिन्दी का एक कवि मिला था। रघुवीर सहाय नाम था उसका… उसने एक कविता सुनाई थी और हमने उसमें से काम का संदेश छांट लिया और प्रजा पर अप्लाई कर दिया।(महारथी मुस्कराता है। राजा ठहाका लगाता है। नेपथ्य से रघुवीर सहाय की वही कविता कोई रुग्ण स्वर में गाता है।)…
मनुष्य के कल्याण के लिए
पहले उसे इतना भूखा रखो कि वह औऱ कुछ
सोच न पाए
फिर उसे कहो कि तुम्हारी पहली जरूरत रोटी है
जिसके लिए वह गुलाम होना भी मंजूर करेगा
फिर तो उसे यह बताना रह जाएगा कि
अपनों की गुलामी विदेशियों की गुलामी से बेहतर है
और विदेशियों की गुलामी वे अपने करते हों
जिनकी गुलामी तुम करते हो तो वह भी क्या बुरी है
तुम्हें रोटी तो मिल रही है एक जून।
(मंच के दोनों तरफ यवनिका का रस्सा थामे गुलामों की भीड़(जिसमें कुछ कवि, साहित्यिक और बुद्धिजीवी भी हैं)…, ध्वनि के मंद पड़ते ही रस्सा खींचने में पूरी ऊर्जा के साथ जुट जाती है। वे प्रसन्न हैं कि आज भी राजभोज के बाद जूठे पत्तलों पर उन्हीं का हक़ है।)

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply