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सआदत हसन मंटो की एक छोटी सी कहानी है- ‘हलाल और झटका’। यह कहानी आज बेतरह याद आ रही है। कहानी में दो किरदार हैं। पहला कहता है- “मैंने उसकी शहरग पर छुरी रखी, हौले-हौले फेरी और उसको हलाल कर दिया।” दूसरा चौंकता है- “यह तुमने क्या किया?” सवाल के जवाब में पहले का सवाल आता है- “क्यों?” दूसरा अपने सवाल को थोड़ी तफ्सील देता है- “इसको हलाल क्यों किया?” पहला रस लेते हुए कहता है- “मज़ा आता है, इस तरह…” दूसरा खीझ कर कहता है- “मज़ा आता है के बच्चे… तुझे झटका करना चाहिए था… इस तरह।” और हलाल करने वाले की गर्दन का झटका हो गया। हो सकता है कि मंटो अपने दौर का सच लिख रहे हों! लेकिन यह हमारे दौर का भी सच है। हम कबूतर उड़ाते हैं। हम हाथ मिलाते हैं। हम बातचीत करते हैं। हम समझौते करते हैं। हम शांति-शांति चीख़ते हुए युद्ध करते हैं। हम सभ्यता के उन्नायक हैं और सभ्यता के संहारक भी। इसीलिए हम पाप या पुण्य को अलग-अलग नहीं बोलते! बल्कि हम तो पाप-पुण्य को एक संयुक्त अक्षर की तरह इस्तेमाल करने के हिमायती हैं। हमारा कोई शत्रु नहीं है बल्कि हम ख़ुद ही अपने शत्रु हैं। मरते भी हम हैं और मारते भी हम ही हैं। इससे ज़्यादा कुछ कर भी नहीं सकते, क्योंकि हमारे हिस्से में इतना ही काम तय पाया गया है। कभी यह भी नहीं पूछा जाता कि हम चाहते क्या हैं- युद्ध या शांति? हमें दोस्ती पसंद है या दुश्मनी? पिछले एक दशक में हम और अधिक परिपक्व हुए हैं। देशी-विदेशी हलचल- विकास, आतंकवाद, सीमा-विवाद, विरोध, आरोप-प्रत्यारोप, मैत्री और संवाद… तमाम घटनाओं-परिघटनाओं का अर्थ भी अब पहले से ज़्यादा स्पष्ट होकर सामने आया है। भारत-पाकिस्तान पड़ोसी हैं। दोनों में परंपरागत सियासी दुश्मनी है। दोनों ही मुल्कों में भ्रष्टाचार चरम पर है। दोनों मुल्कों की जनता भूखे पेट को रोटी, भ्रष्टाचार से मुक्ति, धार्मिक कट्टरता से छुटकारा और सीमा पर शांति के साथ ही अपने-अपने घरों में प्यार और अमन चाहती है। लेकिन जनता के महज चाहने से क्या होता है? दोनों मुल्कों के मसीहाओं के लिए परेशानी का सबब तो कुछ और ही है। वे समस्या का हल नहीं चाहते, बल्कि पहली समस्या को दबाने या ध्यान बंटाने के लिए एक नयी समस्या ईजाद कर लेते हैं। उनके लिहाज से सभी रोगों का रामबाण इलाज नफ़रत और युद्ध ही है। नफ़रत की आग हमारे घर को ही जलाती है… जलाएगी। युद्ध हमारी ही जान लेता रहा है… लेगा। मसीहा तो चुप ही रहा करते हैं, लिहाजा अब भी चुप हैं। मुस्करा रहे हैं। और हम नफ़रत से लिथड़े शब्दों को अपनी सूखी और बेबस ज़ुबान पर रख, चुभला रहे हैं। हम युद्ध-युद्ध चिल्ला रहे हैं। वैसे भी सभ्यता का पुरातन और वास्तविक सत्य तो युद्ध ही है, जबकि सैद्धांतिक सत्य–शांति। इसलिए प्रत्येक युद्ध के बाद नुचे पंखों वाले सफ़ेद कबूतर उड़ाए जाते हैं। थोड़ा कन्फ्यूज़ हो रहा हूँ! सत्ता-व्यवस्था की निर्लज्जता बढ़ी है या कि हमारी समझ में इजाफ़ा हुआ है! दोनों में से कोई एक ही सही है। हम शर्मिंदा हैं। हमें सरबजीत की मौत का दुख है। हमें सनाउल्लाह की मौत का खेद भी है। हम यह भी जानते हैं कि दोनों की मौत का कारण देशभक्ति या राष्ट्रीय स्वाभिमान नहीं है। हम यह भी जानते हैं कि ये दोनों नाम अलग-अलग ज़रूर हैं, लेकिन दोनों एक ही शख़्स था। दोनों की मौत, हमारी ही मौत है और दोनों के हत्यारे भी हम ही हैं। 26 अप्रैल, पवित्र दिन यानी शुक्रवार को जब लाहौर की कोट लखपत जेल में सरबजीत को छह क़ैदियों ने मारा, तो हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान जगा। हम रोये, गुर्राए और निकम्मी सरकार पर जमकर खीझ निकाली। हमें ऐसा लगा कि पाकिस्तान की जेल में सरबजीत क़ैद नहीं था, भारत क़ैद था। हमें लगा कि हमला सरबजीत पर नहीं, भारत के स्वाभिमान पर हुआ है। लाहौर स्थित जिन्ना अस्पताल के आईसीयू में सरबजीत सिंह नहीं, भारत ही अंतिम साँसें ले रहा था। तीन मई भी पवित्र दिन ही था, यानी शुक्रवार। अमृतसर के पास भीखीविंड में सरबजीत का अंतिम संस्कार हो रहा था। हमारे मसीहा की आँखें रोते-रोते सूज गई थीं। हम भी बिसूरते हुए अपनी अंधेरी कोठरियों में क़ैद थे कि जम्मू की कोट बलवल जेल से यह ख़बर निकल आई- कोर्ट मार्शल के बाद उम्र क़ैद की सज़ा भुगत रहे भारत के एक पूर्व सैनिक ने सनाउल्लाह नाम के एक पाकिस्तानी क़ैदी पर हमला कर दिया है। ख़बर मिलते ही हमारी रूह को चैन मिला और हम सनाउल्लाह की मौत के लिए दुआएँ मांगने लगे। हमारे लिए सनाउल्लाह इंसान नहीं था, वह पाकिस्तान था और अब पाकिस्तान हमारे देश के चंडीगढ़ पीजीआई अस्पताल के आईसीयू में भर्ती था। मुक़ाबला एक बार फिर ‘टाई’ रहा। पाकिस्तान की जीत के मंसूबे पर पानी फिर गया। सरबजीत की जान बचाने के लिए पाकिस्तान ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, फिर भी वह मर गया। इंसान के बस में ज़िन्दगी और मौत नहीं होती। सनाउल्लाह के इलाज में भारत ने भी कोई लापरवाही नहीं बरती। उसे एयर एम्बुलेंस से चंडीगढ़ लाया गया। मेडिकल टीम बनी, फिर भी उसकी जान नहीं बच सकी। पहले पाकिस्तान और बाद में भारत ने अपनी-अपनी जेलों में हुई घटनाओं को शर्मनाक माना। दोनों ने मानवीय रवैया अपनाया। घायलों को अस्पताल भेजा। दोनों ने घायल क़ैदियों को अपने-अपने मुल्क भेजे जाने की मांगों को खारिज किया। परिजनों को बड़ी आसानी से वीजा दिए गए। दोनों ने अपने-अपने ‘नागरिक का शव’ लाने के लिए विशेष विमान भेजे। दोनों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हत्या का आरोप लगाया और निष्पक्ष अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी से जांच की मांग की। सरबजीत के परिजनों ने पाकिस्तानी अस्पताल और डॉक्टरों पर बदसलूकी और अमानवीय रुख़ अपनाने का आरोप लगाया था। सनाउल्लाह के परिजनों ने भी भारतीय अस्पताल और डॉक्टरों पर ठीक वही आरोप लगाए। बताने की ज़रूरत नहीं कि इन दोनों घटनाओं में अगर कुछ अलग था तो सिर्फ मरने वालों का नाम और मुल्क। शेष सबकुछ बिल्कुल एक-समान। क्या दोनों तरफ का बिसाती एक ही है? युद्ध में पैदल को सिर्फ मरना ही होता है क्या? शहीद की पदवी, परिजनों को तो ज़्यादा सम्मानजनक नहीं ही लगती होगी! हाँ, इससे राष्ट्र की भावना ज़रूर तुष्ट होती है। आप मुग़ालते में बिल्कुल न रहें, प्यादों की मौत से युद्ध का फैसला नहीं होता। और हाँ, दोनों मुल्कों के सियासी-समाजी हालात से इन घटनाओं का कोई सीधा संबंध नहीं है। ये महज हादसे थे। इसमें सरकार या सरकारी एजेंसियों का कोई हाथ नहीं था। दोनों घटनाएँ, दोनों मुल्कों की जनता के अंदर एक-दूसरे के लिए पल रही नफ़रत का नतीज़ा था। इसलिए अगर आप विचार करना ही चाहते हैं तो हत्या की बजाय हत्या के तरीक़े पर करें। क़त्ल का तरीक़ा मक्तूल की नहीं, क़ातिल की आस्था पर निर्भर करता है और हत्यारे हमेशा देशभक्त होते हैं। वैसे आपको क्या पसंद है- हलाल या झटका?
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