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मर्ज कुछ, इलाज कुछ

पर्दा
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छुटपन की एक घटना याद आती है। गाँव की एक लड़की, गाँव के ही युवक के साथ पकड़ी गई। मामला प्रेम-प्रसंग का था। बड़े-बुज़ुर्गों की सदारत में पंचायत बैठी। दोनों पंचायत में पेश हुए। पंचों को बताया कि वे एक-दूसरे से प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं। लेकिन पंचों ने प्रस्ताव को नकार दिया। मामला नैतिक-अनैतिक के बिन्दु तक ही सीमित कर दिया गया। सवाल-जवाब से ज़्यादा दोनों की लानत-मलामत हुई और सज़ा मुक़र्रर कर दी गई। दो-चार शोहदे टाईप के जवान मुस्तैदी से उठे और बाँस की कच्ची कमाचियाँ काट लाए। इस तरह प्रेमी-युगल की पीठ पर भरी पंचायत में सदाचार की लकीरें उकेरी गईं। दोनों को माँ-बाप ही नहीं बल्कि सामाजिक संस्कार की अवहेलना का भी दोषी ठहराया गया। सज़ा और सुनवाई का केन्द्र-बिन्दु प्रेम नहीं था।

आज के हालात में मीडियाकर्मियों की स्थिति भी उसी प्रेमी-जोड़े जैसी है। मीडियाकर्म और मीडियाकर्मी, दोनों में बुनियादी फ़र्क है। इस बुनियादी फ़र्क को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। जिस जुर्म के दोषी मीडियाकर्मी नहीं हैं, उसी जुर्म का उन्हें मास्टरमाइंड बताया जा रहा है। मीडियाकर्मी-थू-थू, मीडियाकर्मी-ऐं-ऐं। कंटेंट का मसला- मीडियाकर्मी दोषी। सरोकार का सवाल- मीडियाकर्मी दोषी। आचार-संहिता का मामला- मीडियाकर्मी दोषी। अर्थात मीडिया में जो कुछ भी भला या बुरा है या होता है, उसके लिए मीडियाकर्मी ही दोषी हैं। जबकि मामला बिल्कुल उल्टा है।

मीडियाकर्मी तोप नहीं है। वह वास्तव में मजदूर है। वह किसी मीडिया हाउस का महज ‘लोगो’ और ‘बूम’ ढोता है। वह निर्देश के मुताबिक किसी ख़बर को ‘कवर’ करता और ‘ट्रीट’ करता-करवाता है। निर्देशक वह संपादक है, जिसका सीधा सम्पर्क मीडिया हाउस के मालिक से होता है। वैसे भी मीडिया हाउस किसी समाजसेवी की कोशिशों का नतीज़ा नहीं, बल्कि कार्पोरेट घरानों की बहती पूँजी का एक ‘सोता’ मात्र है। मीडिया जनता का प्रवक्ता या हित चिंतक भी नहीं हो सकता, क्योंकि जनता विज्ञापन नहीं देती। लिहाजा किताबी अवधारणाओं के आधार पर मीडियाकर्मियों का मूल्यांकन न्यायसंगत नहीं है।

बीमारी पेड़ की जड़ में है और पत्तियों का उपचार किया जा रहा है। ‘जड़’ पूँजीपति हैं। पूँजीपति, राजनीतिक रूप से मज़बूत हैं। उन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती। सत्ता के हित टकराते हैं। इसलिए पूँजीपतियों को सरकार या प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया निर्देशित नहीं कर सकती। लिहाजा ‘सांईं का लहर, सौतन पर’ उतारने की पुरानी परिपाटी को सब नये ढंग से सेलेब्रेट करने में जुटे हैं।

भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू का मानना है कि पत्रकारिता के स्तर में गिरावट के लिए पत्रकार अथवा मीडियाकर्मी दोषी हैं। उन्हें इनकी योग्यता पर भी शक है। जबकि मीडिया में प्रवेश की प्राथमिक अहर्ता ही ‘स्नातक’ है। अख़बार में पेज बनाने वाला हो या फिल्ड में फ्रीलांसिंग करने वाला। न्यूज़ चैनल में स्क्रिप्ट लिखने वाला हो या पैकेज बनाने वाला या कि प्रोडक्शन का कोई बंदा– सभी कम से कम ग्रेजुएट तो हैं ही। स्नातक पास व्यक्ति जब सिविल सेवा के योग्य है तो मीडियाकर्म के योग्य क्यों नहीं हो सकता है?

वकालत और मीडिया की पढ़ाई तो स्नातक बाद ही शुरू होती है। हाल के दिनों में प्लस टू के बाद एलएलबी या मीडिया की पढ़ाई की शुरुआत हुई है। यानी यह निश्चित है कि जो भी व्यक्ति मीडिया में है, उसके पास स्नातक की डिग्री ज़रूर है। ऐसे में यह सवाल वाजिब है कि क्या काटजू अब मीडियाकर्मियों की न्यूनतम योग्यता पीएच.डी. तय करना चाहते हैं? उन्होंने तीन सदस्यों वाली समिति का जो गठन किया है, उससे कमोबेश मैसेज तो यही निकलता है। वैसे उनका एक और मकसद है। वह चाहते हैं कि जिस तरह एलएलबी या एमबीबीएस की डिग्री के बाद वकालत या डॉक्टरी के लिए, जैसे बार काउंसिल या मेडिकल काउंसिल में पंजीकरण ज़रूरी है, ठीक वैसे ही एक मीडिया काउंसिल बने और मीडियाकर्मी डिग्री के बाद पहले अपना पंजीकरण करवाएँ, फिर नौकरी ढूंढें। इस क़वायद के पीछे दावा यह है कि पत्रकार प्रशिक्षण के अभाव में पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं।

भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में मीडिया के जो निर्धारित मूल्य हैं, उनका मीडियाकर्म से विरोधाभासी संबंध है। ऐतिहासक पक्ष में फिर से घुसने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन अगर आप मीडिया के इतिहास से वाक़िफ़ हैं तो मूल्यों को लेकर हाय-तौबा दिखावे की क़वायद ही मानी जाएगी। ख़ैर, इन दलीलों का मतलब यह नहीं है कि हम मीडिया की निरंकुशता के पक्षधर हैं या कि मीडिया आज जो कुछ भी कर रहा है, उसको बिल्कुल सही गर्दानते हैं। मीडिया में जो कुछ भी हो रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। इसको दुरुस्त किया जाना चाहिए। मीडिया अगर संवैधानिक हितों की रक्षा नहीं कर पा रहा है। मानव मूल्यों की अनदेखी की जा रही है। जनहित की बजाय कोई अख़बार या न्यूज़ चैनल किसी दल विशेष का भोंपू बन गया है तो उस पर अंकुश ज़रूरी है। अंकुश लगना चाहिए। यह अंकुश मीडिया संस्थानों और उनकी पॉलिसियों पर लगना चाहिए, मीडियाकर्मियों पर नहीं, क्योंकि मीडियाकर्मी संस्थान नहीं हैं, सिस्टम नहीं हैं, वे महज टूल्स हैं। टूल्स पर अंकुश का अर्थ क्या है?

बार काउंसिल या मेडिकल काउंसिल में रजिस्ट्रेशन करा लेने मात्र से क्या वक़ालत और डॉक्टरी के पेशे में शुचिता आ गई? अगर हाँ, तो आए दिन कभी हड़ताल तो कभी मरीज़ों से मारपीट जैसी घटनाएँ सरकारी अस्पतालों की नियति क्यों बनी हुई है? सरकारी डॉक्टर अस्पताल में मरीज़ों को मरता छोड़, अपनी प्राइवेट क्लिनिक चमकाने में क्यों लगे रहते हैं? वकील उच्छृंखल क्यों हैं? मामूली से मामूली मुक़दमे भी दशकों से क्यों निपटारे की बाट जोह रहे हैं? अपराधियों को आसानी से ज़मानत कैसे मिल जाती है? मुवक्किलों से मुँहमांगी फीस क्यों वसूली जाती है? अदालतों में इतना भ्रष्टाचार क्यों है? प्रेस काउंसिल भी तो दशकों से है, लेकिन मीडिया हाउसों पर नकेल क्यों नहीं कसी गई? क्या काटजू साहब का इस तरफ कभी ध्यान गया? अगर नहीं, तो क्यों? ऐसे में काटजू जब मीडियाकर्मियों के लिए पंजीकरण ज़रूरी करने की बात करते हैं तो इसका मतलब सिर्फ यही निकलता है कि वह मीडियाकर्मियों की जेब पर एक और ‘सफ़ेद हाथी’ का बोझ डालना चाहते हैं।

ज़ी न्यूज़ के संपादक सुधीर चौधरी वाले मामले को ही लें। सुधीर चौधरी यदि दोषी हैं तो  उन्हें सज़ा मिलनी ही चाहिए। लेकिन क्या सुधीर चौधरी ने निजी हित के लिए वह सारा प्रपंच रचा था? अगर नहीं, तो फिर खुलासे के बाद ज़ी-न्यूज़ का लाइसेंस रद्द क्यों नहीं किया गया? केन्द्रीय प्रसारण मंत्रालय ने मीडिया हाउस के ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं की? राडिया एपिसोड में आजतक ने प्रभु चावला को विदा कर दिया, जबकि एनडीटीवी ने बरखा दत्त का मान बरक़रार रखा। आख़िर क्यों? जबकि मीडियाकर्मी होने के नाते हमने देखा है कि छोटी से छोटी भूल या आरोप की आड़ में किसी भी कर्मी को फौरन संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। मतलब साफ है कि सत्ता-प्रतिष्ठान ही अपने निहित स्वार्थों के लिए मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। जब तक स्वार्थ सधता है, सबकुछ ठीक है। स्वार्थों में टकराव की संभावना बनते ही, शोर-गुल शुरू हो जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि परिदृश्य वही नहीं है, जो ध्वनित हो रहा है। मामला मुनाफे का है। मामला सियासत का है।

प्रेस काउंसिल के ही पूर्व अध्यक्ष पी वी सावंत ने कभी कहा था- “मुनाफे के लिए पहले ‘येलो जर्नलिज्म’ शुरू हुई। अब ‘च्यूंगम जर्नलिज्म’ का चलन बढ़ा है। ऐसी ख़बरें दिखाते हैं, जिसमें जान ही नहीं होती। एक ही स्टोरी को बार-बार दिखाते हैं। हर रोज़ घृणा फैलाई जा रही है। अंधविश्वास को अलंकृत किया जा रहा है। मीडिया के माध्यम से सामाजिक एवं आर्थिक हैसियत को बढ़ाने के लिए उद्योगपति व राजनेता पत्रकारिता की आगोश में जाते हैं। यही कारण है कि प्रायोजित तरीके से उचित-अनुचित के विवेक को लहूलुहान कर दिया गया है।” मीडिया की दुर्दशा का असली कारण यही है, न कि मीडियाकर्मी। लेकिन हाँ, पी वी सावंत जिस च्यूंगम जर्नलिज्म की बात कर रहे हैं और जिन ख़बरों को बेजान बता रहे हैं, वह ख़बरें बेजान नहीं होतीं, बल्कि मीडिया मुग़ल इन्हीं ख़बरों के माध्यम से दबाव बनाते हैं और फिर अपना हित साधते हैं। मीडियाकर्मियों का हित इससे जुड़ा नहीं है। बल्कि पुरानी ख़बरों को रन पर लपेटे रखना, प्रोड्यूसर को भी बहुत भद्दा लगता है।

केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें। काटजू हों या कोई और। सभी पत्रकारिता के गिरते स्तर पर घड़ियाली आँसू तो बहाते हैं। लेकिन बीमारी के मुकम्मल इलाज में किसी की दिलचस्पी नहीं है। अगर ऐसा होता तो मीडिया हाउस के लिए 20 करोड़ के एसेट्स को ज़रूरी नहीं किया जाता। मतलब कि सरकार की नज़र में करोड़पति होना ही नैतिक होना है। तो जब लाइसेंस का आधार ही ऐसा है तो फिर प्रोडक्शन कैसा होगा? अधिकांश चैनल या अख़बार, या तो उद्योगपतियों के हैं, बिल्डर्स के हैं या फिर नेताओं के हैं। आखिर क्यों? जब 20 करोड़ रूपये से नैतिकता तय होगी तो हालात कैसे होंगे?

मतलब साफ है कि मीडियाकर्मियों की योग्यता संदिग्ध नहीं है। अगर कुछ संदिग्ध है तो वे हैं मीडिया हाउस, उसके मालिक और सबसे बढ़कर सरकार। काटजू योग्यता को लेकर चिंतित हैं, लेकिन मीडियाकर्मियों की आर्थिक दशा को लेकर कभी दुखी नहीं होते। शायद काटजू साहब को पता हो कि बहुसंख्यक मीडियाकर्मी उस वेतनमान पर काम कर रहा है, जो छठे वेतनमान के बाद चपरासियों के समकक्ष ही ठहरता है। मीडियाकर्मियों की नौकरी हर-वक़्त ख़तरे में होती है। जॉब सेक्यूरिटी के मामले में इनकी हालत दिहाड़ी मजदूर जैसी ही है। मीडियाकर्मी सिर्फ नौकरी बजाने नहीं आता। वह कुछ सामाजिक दायित्वों के निर्वाह का सपना भी रखता है। इसीलिए कम वेतन पर भी काम करना स्वीकार करता है। लेकिन सिस्टम उन्हें कंटेंट चुनने की आज़ादी नहीं देता।

अच्छा तो यह होता कि भारतीय प्रेस परिषद मीडियाकर्मियों की बजाय मीडिया हाउसों पर अंकुश और उनके लिए कुछ अहर्ताएँ तय करने में अपना बहुमूल्य समय खर्च करता। गर फुर्सत मिलती तो मीडियाकर्मियों के लिए न्यूनतम योग्यता की बजाय न्यूनतम वेतन तय करता। उनकी नौकरी पर लटकती तलवार को वापस म्यान में रखने के लिए मुग़लों पर दबाव बनाता। लेकिन नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि मक़सद रोग का उपचार नहीं है। यहाँ हम्माम न सही, बाज़ार तो है और बाज़ार में सबके सब नंगे ही हैं। मर्ज कुछ, इलाज कुछ। परिदृश्य बहुत हद तक गाँव की उसी पंचायत जैसा है। मीडियाकर्मियों की पीठ पर कच्ची कमाची से सदाचार उकेरने की कोशिश की जा रही है।

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