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पीतमय जग जानी

पर्दा
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नया उत्साह, नई तरंगों की पीठ पर सवार हो और अचानक कोई रोड़ा राह में झटका दे, तो ऐसी स्थिति में क्या होगा? बात ज़्यादा गंभीर नहीं है। वैसे भी जिस मुल्क में बड़ी-से-बड़ी समस्या भी गंभीरता की श्रेणी में जगह नहीं बना पाती, वहां एक बात की क्या औक़ात! अगर मैं ग़लत कह रहा हूँ, तो आप टोक सकते हैं। लेकिन मेरी एक छोटी सी शर्त है। कम-से-कम एक उदाहरण के साथ आपको पक्ष रखना होगा। वैसे विरोध का चलन भी पुराना है। सत्ता-पक्ष के साथ विपक्ष की संवैधानिक अनिवार्यता का सीधा संबंध इसी से है। हमने ‘निंदा’, ‘भर्त्सना’, ‘नैतिकता’, ‘समर्थन’, ‘अविश्वास’, ‘शपथ’, ‘त्याग’, ‘खंडन’, ‘विरोध’, ‘संघर्ष’, ‘आंदोलन’, ‘जनहित’ और ‘प्रस्ताव’ जैसे शब्द तो इसी व्यवस्था से सीखे हैं। (ऐसा कहते वक़्त, हमें आशंका है कि सांस्कृतिक पुनरुत्थान के पोषक तत्व, विरोध में उठ खड़े होंगे और इन शब्दों के सांस्कृतिक मर्म-धर्म बांचने को उद्धत हो उठेंगे। लेकिन अभिव्यक्ति के ख़तरे तो उठाने ही पड़ते हैं। भले ही वह बंध्या हो और प्रभाव के स्तर पर बिल्कुल बेकार। ख़ैर हम सफ़ाई पेश करना चाहते हैं कि इन शब्दों का उद्भव चाहे जिस किसी काल-खंड अथवा सांस्कृतिक परिवेश में हुआ हो, लेकिन हम तक इसकी पहुंच लोकतंत्र के वीर सिपाहियों की मदद से ही बनी है। इसलिए क्रेडिट हम इसी व्यवस्था को देंगे।)

प्रत्येक सत्ता-प्रतिष्ठान की अपनी विशिष्ट भाषा होती है। जैसे विधायिका की अपनी भाषा होती है, ठीक वैसे ही न्यायपालिका की भी अलग भाषा होती है। कार्यपालिका के अपने निजी शब्दकोश होते हैं और मीडिया की भी अपनी डिक्शनरी होती है। (असहमति का जोख़िम उठाते हुए भी यह स्वीकार करने से हमें परहेज़ नहीं कि मीडिया भी सत्ता-प्रतिष्ठान के रूप में स्थापित हो चुका है।) कहने को तो सभी का मूल एक ही भाषा है, लेकिन ‘शब्द’ संस्थान के अनुरूप ही अपना तासीर रखता है। वैसे मैं फिलवक़्त न तो मीडिया की भाषा और न ही किसी अन्य सांस्थानिक-भाषा या शब्द पर विचार-विमर्श करना चाहता हूँ। बल्कि मैं तो मीडिया के आचरण से संबद्ध एक ‘टर्म’ को लेकर गुनधुन में हूँ। ये टर्म है- पीत-पत्रकारिता।

अभी कुछ दिनों पहले मीडिया स्टूडेंट्स के साथ संवाद के दौरान, यह सवाल किसी उत्साही मुख से थोड़े विस्मय के साथ मेरी तरफ उछला था कि ‘पीत-पत्रकारिता या येलो-जर्नलिज्म’ क्या है? मैंने अपने स्तर से जवाब देने की कोशिश की। मीडिया की नई पौध कहीं निराशा की शिकार न हो जाए! उनकी खिलती उमंगें कहीं असमय मुरझा न जाएँ! उम्मीदों को पाला न लगे! लिहाजा बिल्कुल नपे-तुले शब्दों में मैंने जवाब दिया- स्कैंडल, सनसनी और अफ़वाहों से जुड़ी ख़बरों को जब अख़बारों और न्यूज़ चैनल्स के बुलेटिन्स में जगह दी जाती है, ताकि पाठक या दर्शकों को बांधा जा सके तो इसे पीत-पत्रकारिता कहते हैं। इसे ‘टेब्लॉयड जर्नलिज्म’ के नाम से भी पुकारा जाता है।

छात्र इस उत्तर से कितने संतुष्ट हुए? ठीक-ठीक बता नहीं सकता! लेकिन ख़ुद मुझे लगता रहा है कि पीत-पत्रकारिता की जो परिभाषा है, वह सिर्फ अधूरी ही नहीं, बल्कि भ्रामक भी है। सिर्फ यह कह देने से कि पूर्वाग्रह से प्रेरित न्यूज़ रिपोर्टिंग या प्रसारण पीत पत्रकारिता है, बात पूरी नहीं हो जाती। जे. नटराजन ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय पत्रकारिता का इतिहास’ में यह दर्ज़ किया है कि कम्पनी प्रशासन से नाराज़ जेम्स ऑगस्टस हिक्की नाम के शख्स ने 1780 ई. में ‘बंगाल गजट’ का प्रकाशन शुरू किया। “इसमें गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स सहित कम्पनी के कर्मचारियों के निजी जीवन पर फूहड़ और उपहासजनक टिप्पणियों को तरजीह दी जाती थी।” मतलब यह कि हिन्दुस्तान में पत्रकारिता की शुरुआत ही पीत-पत्रकारिता से हुई। निजी खुन्नस या हितों की पूर्ति के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़े व्यक्तियों को निशाना बनाना और इसके लिए स्कैंडल और अफवाहों को जन्म देना या प्रसारित करना पीत-पत्रकारिता ही तो है।

अभी हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अमेरिकी अख़बार द्वारा ‘अंडर अचीवर’ और ब्रिटिश न्यूज़ पेपर द्वारा ‘पेटिकोट पीएम’ करार दिया गया। पंचशील सिद्धांत का जन्मदाता और गुट-निरपेक्ष जैसे सशक्त आंदोलन के अगुआ रहे मुल्क हिन्दुस्तान के एक प्रधानमंत्री का भद्दे ढंग से मज़ाक उड़ाया गया। निश्चय ही ये टिप्पणियाँ मनमोहन सिंह पर नहीं थीं, यह टिप्पणी हिन्दुस्तान पर थी। लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं। यही वह देश है, जहाँ छोटी-छोटी बातों पर लोगों की भावनाएँ आहत हो उठती हैं। मामूली विवाद या हादसा, कब हत्या और दंगे में तब्दील हो जाता है, पता ही नहीं चलता! जिस देश का बड़ा तबका सीमा पर शत्रु-देश के साथ क्रॉस-फायरिंग में किसी सैनिक की शहादत पर झट से आहत हो उठता है। उसी देश के प्रधानमंत्री का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर माखौल उड़ाया जाता है और न जनता आहत होती है और न ही मीडिया को ही राष्ट्रीय अस्मिता की याद आती है! आख़िर क्यों? कारण आप भी जानते हैं। दरअसल केन्द्र सरकार रिटेल में एफडीआई के मुद्दे पर अमेरिकी दबाव को नज़र-अंदाज़ कर रही थी। दुर्भाग्य यह रहा कि न सिर्फ भारतीय मीडिया बल्कि विपक्षी दलों ने भी इसे मुद्दा बना लिया और कई हफ़्तों तक मनमोहन सिंह का उपहास उड़ाते रहे। या तो मीडिया और विपक्षी दलों ने जान-बूझकर ऐसा किया या फिर अनजाने में… लेकिन यह सच है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने अंततः हमारी सरकार झुक गई। और इसके बाद नये सिरे से मीडिया और विपक्ष ने सरकार के ख़िलाफ मुहिम छेड़ दी और फैसले को जनविरोधी करार दिया। यही येलो जर्नलिज्म है।

सेंट लुईस पोस्ट-डिस्पैच के संपादक रहे सी. कैम्पबेल के इस कथन से बात और स्पष्ट हो जाती है कि “पत्रकारिता वस्तुतः समस्या-समाधान का व्यापार है, न कि सत्य-शोधन का… यह हम पत्रकारों के लिए महान अवसर है कि हमारी न्यूज़ रिपोर्ट्स समस्या को उसके हल तक पहुँचाए।” मतलब कि मीडिया सिर्फ सच दिखाने के लिए नहीं है। मीडिया किसी ‘मोटिव’ को पूरा करने के लिए भी है। मीडिया ‘पॉवर डिस्कोर्स’ का ही अंग है। आधुनिक युग में मीडिया बिल्कुल नये रूप में हमारे सामने है। अब घटित घटनाओं में से पाठकों या दर्शकों के हित के अनुरूप ख़बर छांटने की बजाय निहित-कारणों से ख़बरें ‘क्रिएट’ की जाती हैं। मनमोहन सिंह वाली ख़बर इसी श्रेणी में आती है। मीडिया व्यापक परिप्रेक्ष्य में कभी पाठक समुदाय के हितों का पोषण करने वाला ‘प्रेशर ग्रुप’ हुआ करता था। अब यही मीडिया अपने मालिक या फिर मीडिया संस्थान को लाभ पहुँचाने वाले अन्य प्रतिष्ठानों के हित में सत्ता और शक्ति केन्द्रों में सशक्त हस्तक्षेप करता है।

मैं वर्तमान को समझने के लिए इतिहास में झांकने का हिमायती रहा हूँ। क्योंकि वक़्त के साथ-साथ मेरी यह धारणा और मज़बूत हुई है कि व्यवस्था का मूल हमेशा ‘अक्षुण्ण’ रहता है, केवल बाहरी आवरण बदलते रहते हैं, ताकि आम-आदमी में बदलाव का भ्रम बना रहे। 20वीं सदी का अंतिम दशक सिर्फ ‘भूमंडलीकरण’ जैसे पदबंधों का ही नहीं, बल्कि पीत-पत्रकारिता के एक नये ‘जेनर’ का जन्मदाता भी है। मनमोहन सिंह को ‘चुप्पा’, लालू प्रसाद को ‘मसखरा’ और नीतीश-नरेन्द्र को ‘विकास-पुरुष’ की उपाधि के पीछे का राज़ भी पीत-पत्रकारिता के मायावी-महल में ही छुपा है। नीतीश-नरेन्द्र, रमन-शिवराज के सुशासन का राज़ भी पत्रकारिता के इतिहास में छुपा है। हम सभी जानते हैं कि आपातकाल के दौरान देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी थीं, लेकिन तमाम समाचार-पत्र संजय गाँधी के यशोगान में जुटे थे। यह क्या था? वैसे जिस साल(यानी 1780 में) ‘बंगाल गजट’ का प्रकाशन शुरू हुआ और कुछ दिनों बाद बंद हो गया, उसी साल ‘इंडिया गजट’ नाम से भी एक पत्र की शुरुआत हुई। मेसर्स बी मेसनिक और पीटर रीड ने किया यह कि पत्र-प्रकाशन से पूर्व ही गवर्नर जनरल से सहमति ले ली। यह वादा किया कि वे प्रशासन द्वारा तय किए गए सभी नियमों का पालन करेंगे। कम्पनी प्रशासन की उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता था। इसका नतीज़ा भी सकारात्मक रहा और ‘इंडिया गजट’ को डाक-संबंधी छूट के साथ ही सरकारी मुद्रक की सुविधा भी मिल गई। मतलब सिर्फ ‘गॉशिप’ और ‘स्कैंडल’ ही नहीं, बल्कि भय अथवा लोभ भी पीत-पत्रकारिता का ही अंग है।

अगर थोड़ी देर के लिए ‘जनहित’ शब्द को भूल जाएँ तो ‘जेसिका लाल हत्याकांड’ को लेकर मीडिया का जो रुख़ रहा(निश्चय ही इस मामले में मीडिया का ‘रोल’ प्रशंसनीय रहा।), वह भी इसी श्रेणी में आता है। आरुषि मर्डर मिस्ट्री, निठारी कांड, निर्भया मामला… सब इसी श्रेणी में आते हैं। शायद आपको याद हो, इलाज के लिए सोनिया गाँधी की अमेरिकी यात्रा कुछ दिनों तक मीडिया के लिए बेहद सनसनीख़ेज़ और रहस्यमय घटना रही। कौन सी बीमारी है? भारत में इलाज क्यों नहीं? यात्रा को गोपनीय क्यों रखा गया? अमेरिका में कौन से हॉस्पिटल या डॉक्टर की देख-रेख में इलाज चल रहा है? सरकार इस मुद्दे पर चुप क्यों है? आदि-आदि। ऐश्वर्या राय ने जैसे ही बच्ची को जन्म दिया, बच्ची सेलेब्रेटी की श्रेणी में आ गई। महीनों तक मीडियाकर्मी कुत्ते की तरह बच्चन फैमिली के इर्द-गिर्द घूमते रहे, ताकि बच्ची की फोटो उतारी जा सके। जब तक बच्ची की फोटो नहीं मिली, तब तक शब्द-चित्रों से काम चलाया गया। मानो बच्चन फैमिली में बच्ची का पैदा होना, सदी की सबसे बड़ी और अविस्मरणीय घटना थी! ऐश्वर्या के माँ बनने से भारत में एक नये युग का सूत्रपात हुआ हो! फिल्म अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के निजी संबंधों को लेकर चटपटी और मसालेदार ख़बरों का सिलसिला तो खैर बहुत पुराना है।

यह आम धारणा है कि ‘सेक्स’ स्क्रीन पर बहुत महंगा बिकता है। न्यूज़ चैनलों पर अवैध-संबंधों से जुड़े अपराध या फिर बलात्कार और प्रेम-प्रसंगों से जुड़ी ख़बरों को तरजीह दी जाती है। उसकी स्क्रिप्ट किसी चुटकुला-फ़िल्म के अंदाज़ से कम नहीं होती। यह घटनाएँ समाज के लिए कोढ़ हैं। हम सभी वाक़िफ़ हैं। लेकिन जिस तरह से इन ख़बरों को परोसा जाता है, उससे लोगों के हृदय में संवेदना की जगह जुगुप्सा का भाव ही जन्मता है। एक उदाहरण-“वह बेहद ख़ूबसूरत थी। उम्र यही कोई 18 साल। वह आम दिनों की तरह, आज भी गंगा-किनारे कपड़ा धोने गई थी। लेकिन उसे क्या मालूम था कि आज सिर्फ कपड़ा ही नहीं, उसकी इज्ज़त भी धुल जाएगी।” सन्नाटे को चीरने वाली ‘सनसनी’ इस दिशा में बड़ा माइल-स्टोन है। ‘आईबीएन 7’ की शुरुआत ही एक ऐसे क्राईम बुलेटिन से हुई थी, जिसमें एक सुंदर युवती आपराधिक घटनाओं को अपनी लट में लपेट कर लाती थी और बड़े ही अजीब ‘पोस्चर’ में इतराती-इठलाती लटों को सहलाती, हृदय-विदारक घटनाओं को सरस बनाने में व्यस्त रहती थी। जब विरोध हुआ तो इसे ब्लैक-ह्यूमर की संज्ञा दी गई। अब आप ही बताइए, इसे पत्रकारिता की किस श्रेणी में जगह दी जाए?

वैसे भी पीत-पत्रकारिता अब अपने तमाम तयशुदा मानदंडों को ठेंगा दिखा चुकी है। जिसे कल तक हम पीत-पत्रकारिता कहा करते थे, वही अब वास्तविक अथवा मेनस्ट्रीम पत्रकारिता है। अब ख़बरें दिखाई नहीं जातीं, बेची जाती हैं। ख़बर के हिसाब से ट्रीटमेंट नहीं होता, ट्रीटमेंट के हिसाब से ख़बरें तय होती हैं। तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है। सच को एडिट किया जाता है, ज़रूरत के हिसाब से झूठ और बेकार के शब्द पिरोए जाते हैं। झूठ-सच की यह मिक्सिंग इतनी बारीक होती है कि आप आसानी से दोनों को अलग नहीं कर सकते। झूठ को सच बनाने के लिए ‘च्यूइंग-गम जर्नलिज्म’ अस्तित्व में आ गई है। यानी झूठ को पूरे यक़ीन के साथ, इतनी बार दिखाओ कि लोग उसी को सच मान बैठें। जन-सरोकार की बजाय सतही मुद्दों को तरजीह, अपने मक़सद की खातिर, किसी ख़बर को ख़ास परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना आदि, पीत-पत्रकारिता की ही श्रेणी में आते हैं।

‘पेड न्यूज़’, ‘स्टिंग ऑपरेशन’, ‘च्यूइंग-गम जर्नलिज्म’, ‘प्रोपगेंडा’ और अब तो ‘ब्लैकमेलिंग’ भी मीडिया का अभिन्न अंग बन चुके हैं। कहना न होगा कि यह तमाम ‘टर्म’ पीत-पत्रकारिता के ही भिन्न-भिन्न रूपों के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। विरोध में उठने वाले स्वरों को शांत करने के लिए कमिटियाँ और आयोगों का गठन होता है। बाद में मामले को ‘लीगैसी’ और ‘लीगैलिटी’ के चश्मे से देखने की कोशिश की जाती है और समस्या ‘ढाक के तीन पात’ के रूप में जस-की-तस बनी रह जाती है। सच तो यह है कि स्वतंत्रता-पूर्व की मीडिया और स्वतंत्रता-बाद की मीडिया में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। आज की मीडिया ‘बाज़ार’ और ‘सत्ता-प्रतिष्ठानों’ के शिकंजे में है।

आर्थर ब्रिसबेन ने कभी पीत-पत्रकारिता के सार्थक-सामाजिक पहलुओं को ‘एक्सपोज़’ करते हुए दावा किया था कि “यह जन-अभिमत(पब्लिक ओपिनियन) की शक्ति है, हज़ारों-लाखों पाठकों की मानसिक शक्ति(मेंटल फोर्स) का, उन्हीं के हित में कम अथवा अधिक विवेक के साथ उपयोग है। इस प्रकार ‘येलो जर्नलिज्म’ गणतांत्रिक यूनान के उस ‘पब्लिक स्पॉट’ की उत्तराधिकारी है, जहां पर सार्वजनिक मामलों के निपटारे के लिए ग्रीक नागरिक इकट्ठा होते थे।” यह दावा असंदिग्ध नहीं है। हालांकि भारतीय परिप्रेक्ष्य में, ब्रिसबेन का यह दावा कई मौकों पर सार्थक भी सिद्ध हुआ है। ‘शॉर्ट टर्म पर्सनलिटी’ की आड़ में सम्प्रदाय विशेष को कुख्यात बनाने में मीडिया की भूमिका अहम रही है। ‘मीडिया ट्रायल’ ने कई समस्याओं को और पेचीदा ही बनाया है। ‘सच’ से मीडिया की बढ़ती दूरी ने सूचना-तंत्र के ग़लत इस्तेमाल और लोगों में ग़लत धारणाओं का रोपन भी किया है। कला-संस्कृति की आड़ में सेक्स और विकृतियाँ परोसी जा रही हैं तो राष्ट्रवाद की आड़ में साम्प्रदायिक उन्माद।

वैसे मुझे आर्थर ब्रिसबेन से अधिक सटीक मार्शल मैक्लूहान लगते हैं, जब वे कहते हैं कि “जब मीडिया बड़े कार्पोरेट घरानों के नियंत्रण में आ जाता है, तब उसका सम्पूर्ण कायांतरण हो जाता है। जब इसके पाठक या दर्शक मीडिया के प्रभाव में आ जाते हैं, तब उनकी इंद्रियों पर मीडिया का कब्ज़ा हो जाता है। अर्थात, जब पाठक, दर्शक या स्रोता की इन्द्रियों का मीडिया अनुकूलन कर लेती है, तब कार्पोरेट वर्ग इन्हें उपभोक्ता-वर्ग में तब्दील कर देता है। बाद में यही उपभोक्ता-वर्ग, राष्ट्रीय एवं बहुर्राष्ट्रीय निगमों के लिए विशाल बाज़ार का निर्माण करता है।” मतलब यह कि मीडिया की आधुनिक संरचना इतनी जटिल है कि पाठक या दर्शक का सामान्य विवेक, सच तक बमुश्किल ही अपनी पहुँच या पैठ बना सकता है। समस्या तो यह भी है कि लोकतांत्रिक सत्ता- व्यवस्था, जिस तरह प्रत्यक्ष रूप से जन-हित का राग अलापती रहती है और अप्रत्यक्ष रूप से कॉर्पोरेट्स के हित-साधन में जुटी रहती है। जिस तरह जन-प्रतिनिधि जन-कल्याण और भ्रष्टाचार के विरुद्ध नैतिक आंदोलन चलाने की वकालत करते हैं और स्व-कल्याण के साथ ही निर्द्वंद्व भाव से भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं, ठीक उसी तरह मीडिया भी अपने उद्देश्य पर बड़ी होशियारी के साथ पर्दा डाले रखता है और जन-भावनाओं के शोषण में लगा रहता है।

मीडिया के अभिमन्यु को कहाँ पता कि नागरिक-अधिकारों के हनन और हरण के लिए प्रभु-वर्ग ने कितने चक्रव्यूह तैयार कर रखे हैं! भेंड़ की खाल में भेड़ियों का झुंड है। जब भाषा ही संदिग्ध हो तो शब्दों के भाव किस हद तक अपनी अस्मिता की रक्षा कर सकेंगे! इसलिए अब वक़्त आ गया है कि अर्थ को समझने की बजाय मंतव्य को समझा जाए। ठोकर की आशंका को निरस्त करने के लिए ज़रूरी है कि सिर्फ ऊपर-ऊपर देख कर दौड़ने की बजाय जिस धरातल पर दौड़ रहे हैं, उस पर भी नज़र रखी जाए। रही पीत-पत्रकारिता की बात तो अब कुछ भी ब्लैक एंड व्हाइट नहीं है। जिसे कभी पीत-पत्रकारिता कहा गया था, वही अब असली पत्रकारिता है। अतः अब इस ‘टर्म’ को पढ़ाने या इस पर विचार करने की ज़रूरत नहीं रही। कबीर के शब्दों में कहूँ तो “माया(पूँजी) महा ठगिनी हम जानी। तिरगुन(विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका) फांस लिए कर डोले (मीडिया)बोले मधुरे बानी।” पीतमय जग जानी।

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