Menu
blogid : 9789 postid : 592825

बाज़ार की ही नहीं, हम सब की भाषा है- हिन्दी (‘हिन्दी बाजार की भाषा है, गर्व की नहीं’ या ‘हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गई है’ – क्या कहना है आपका?)

पर्दा
पर्दा
  • 46 Posts
  • 343 Comments

बात उस ज़माने की है, जब हमारे मुल्क पर अँग्रेज़ों की हुकूमत थी। सन सत्तावन की क्रांति के बाद का दौर था। हिन्दी-उर्दू को लेकर रस्साकशी आम हो चली थी। एक तबका उर्दू का तो दूसरा हिन्दी का पैरोकार था। उर्दू तब शहरी मध्यवर्ग की भाषा थी। शिव प्रसाद और भारतेंदु के बीच इसको लेकर गंभीर विरोध था। यह बात भी कम दिलचस्प नहीं है कि भारतेंदु हिन्दी समर्थक होते हुए भी उर्दू के शायर थे। वे ‘रसा’ उपनाम से ग़ज़लें भी लिखा करते थे। भारतेंदु हिन्दी को गद्य की भाषा और ब्रज को पद्य की भाषा मानते थे। हालांकि बाद के दौर में महावीर प्रसाद द्विवेदी की कोशिशों से हिन्दी न सिर्फ काव्यभाषा बनी, बल्कि उसका वाजिब परिष्कार भी हुआ।

अदालती कामकाज में उर्दू को तरजीह मिले या हिन्दी को! मसला गंभीर था। उर्दू पहले से अपनी पकड़ बना चुकी थी। हिन्दी को अभी उठना था। अँग्रेज़ी हुकूमत की तरक़ीबें तब निराली हुआ करती थीं। इस मामले में भी अँग्रेज बहादुर ने नायाब तरीके से दो समितियों का गठन किया। दोनों समितियों में एक-एक सदस्य ही थे और दोनों को अपनी-अपनी रिपोर्ट सरकार को देनी थी। उर्दू का पक्ष सर सैयद अहमद खाँ को, तो हिन्दी का पक्ष भारतेंदु हरिश्चन्द्र को रखना था। सर सैयद ने अपनी रिपोर्ट में हिन्दी को ‘गंवारों की भाषा’ क़रार दिया और उर्दू की वक़ालत की। वहीं भारतेंदु ने उर्दू को ‘कोठे की भाषा’ क़रार देते हुए हिन्दी की वक़ालत की। रिपोर्ट के बाद हिन्दी-उर्दू का झगड़ा और उलझ गया।

मुल्क के सियासी बँटवारे ने भाषाई संघर्ष पर पूर्णविराम लगा दिया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता तो मिल गई, लेकिन आज़ादी के तुरंत बाद उत्तर-दक्षिण के सियासी दाँव-पेंच में हिन्दी फिर से उलझा दी गई और अँग्रेज़ों के जाने के बाद भी अँग्रेज़ी का रुतबा बरकरार रहा। ऐसा दर्शाने की कोशिश हुई कि हिन्दी को तरजीह मिली तो दक्षिण की क्षेत्रीय भाषाओं यथा- तमिल, मलयालम, तेलुगु, कन्नड़ का अस्तित्व ख़त्म हो जाएगा। हालांकि अब भ्रम की ये स्थिति नहीं रही और लोग समझने लगे हैं कि कोई भाषा, किसी दूसरी भाषा के कारण अपना अस्तित्व नहीं खोती। बल्कि किसी भाषा की मौत तब होती है, जब उसको बोलने वाले नहीं रहते। यही वजह है कि तमिलनाडु को छोड़कर पूरे दक्षिण भारत में अब हिन्दी का प्रसार धीरे-धीरे ही सही, हो रहा है।

प्रभु-वर्ग का रहन-सहन, उसकी भाषा आदि के नक़ल की प्रवृत्ति बहुत पुरानी है। मुग़ल-काल में फ़ारसी और ब्रीटिश-काल में अँग्रेज़ी के प्रति अनुराग, इसके पुख़्ता सबूत हैं। क्या आप इससे इनकार करेंगे कि शोषण के जिन सामंती औज़ारों के हम शिकार रहे, शक्ति-प्राप्ति के बाद स्वयं भी उसी को अपनाने की कोशिश नहीं करते रहे हैं? यानी प्रभु-वर्ग के इर्द-गिर्द पहुँचने या उनके जैसा बनने की लालसा हमेशा विद्यमान रही है और आधुनिक अँग्रेज़ी प्रेम उसी का उदाहरण है। ऐसी दलीलें दी जाती हैं कि हिन्दी अभी समृद्ध भाषा नहीं बन पाई है, लिहाजा इसमें ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा या जटिल शासन-तंत्र का संचालन संभव नहीं है। ये दलीलें बिल्कुल भ्रामक हैं। वस्तुतः जनता की भाषा को सत्ता की भाषा से अलगाए रखने के लिए यह प्रपंच रचा गया है। ताकि सत्ता-केन्द्र से जनता की दूरी बनी रहे और बिचौलिया वर्ग को अपने हित-पोषण में किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़े।

उदारीकरण के बाद बाज़ार द्वारा हिन्दी को तरजीह, इस बात का सबूत है कि भारत में हिन्दी के बिना न तो संवाद चल सकता है और न ही बाज़ार। मीडिया ने भी हिन्दी की अनिवार्यता को साबित किया है। इसलिए ये कहना कि हिन्दी महज ग़रीबों और अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गई है, बिल्कुल ग़लत है। बल्कि सच तो ये है कि हिन्दी की ज़रूरत ने अँग्रेज़ी की माला जपने वालों को भी बारहखड़ी सीखने पर मजबूर कर दिया है। पब्लिक स्कूलों में पढ़ाई के बाद मीडिया में आए तीसमार खाँ को भी अंततः हिन्दी में ही लिखना-बोलना पड़ता है। आप सिविल सेवा के ही पिछले 2-3 दशकों का इतिहास खंगालें तो पाएँगे कि हिन्दी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं को माध्यम के रूप में चुनने वालों की सफलता का प्रतिशत, अँग्रेज़ी से ज्यादा है। बल्कि हिन्दी माध्यम से सिविल सेवा में आने वालों को रोकने के लिए हाल ही में अँग्रेज़ी को अनिवार्य कर दिया गया था, जिसे बाद में वापस लेना पड़ा।

हाँ, यह सच है कि बाज़ार के कारण हिन्दी, रोज़गार की सशक्त भाषा के रूप में उभरी है और इससे यह बात भी साबित हुई कि हिन्दी पर अँग्रेज़ी को वरीयता वास्तव में प्रशासनिक साजिश है। हिन्दी सिर्फ़ ग़रीबों और गंवारों की भाषा नहीं, हमारी मातृ-भाषा है। रही गर्व की बात तो गर्व की नहीं, अपनी भाषा से प्रेम की ज़रूरत है। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply