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ब्लॉगिंग ने बनाया हिन्दी को पॉपुलर

पर्दा
पर्दा
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क्या कोई भाषा स्टैटिक रह सकती है? क्या कोई भाषा समय-प्रवाह को दरकिनार कर, अपने मूल स्वरूप में सदा स्थिर रह सकती है? अगर कोई भाषा अपने मूल रूप को अक्षुण्ण बनाए रखती है तो क्या उसका नैसर्गिक विकास प्रभावित नहीं होता? और सबसे अहम सवाल यह कि क्या दुनिया में ऐसी कोई भाषा है, जो अपने विशुद्ध रूप में आज भी मौजूद हो? अभी जब ‘हिंग्लिश’ को लेकर सोच रहा था तो ये सारे सवाल एक-एक कर जेहन में आते रहे। सोच-विचार की फ़िजूल प्रक्रिया से गुजरते हुए, यह महसूस हुआ कि भाषा की शुद्धता का प्रश्न ही भ्रामक है। कभी कोई भाषा अपने व्याकरणिक कसौटी या देशजवादी विशुद्धता के पैमाने पर खरी नहीं उतर सकती।

ब्लॉगिंग, हिंग्लिश और हिन्दी के वास्तविक स्वरूप को लेकर विचार से पहले हम जानना चाहते हैं कि हमारी हिन्दी कब विशुद्ध रही है? हिन्दी-भाषा के रूप में अपने जन्म से लेकर आज तक सतत् प्रगतिशील और प्रयोगशील रही है। इसके विकास-क्रम को देखें तो हम पाएँगे कि यह नये-नये शब्दों के अविष्कार से नहीं, नये-नये शब्दों की खोज और उसके आत्मसातीकरण से विकसित हुई है। समयानुकूल भाषा या तो स्वरूप-विस्तार करती है या फिर स्वरूप में बदलाव। हिन्दी ने ये दोनों काम उदारता से किया है। इसीलिए इसकी लोकप्रियता भी बढ़ती रही है। ब्रज, अवधि, बुंदेली, खड़ी और न जाने कौन-कौन सी भाषाओं के मेल से हिन्दी बनी है। थोड़ा पीछे जाएँ तो अपभ्रंश, अवहट्ट, पाली, संस्कृत, मागधी, अर्द्ध-मागधी जैसी भाषाओं से हिन्दी ने आधार ग्रहण किया। आज हम जिसे हिन्दी के रूप में जानते-पहचानते, लिखते-बोलते हैं, उसकी आयु डेढ़ सौ वर्ष से अधिक नहीं है।

डेढ़ सौ साल में अगर कोई भाषा विश्व की तीसरी बड़ी भाषा के रूप में स्थापित होती है, तो यह अपनेआप में बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए। इसीलिए जब हिन्दी-भाषा के अस्तित्व संकट की कोई बात करता है तो यह मुझे स्यापा अथवा मिथ्या-विलाप से अधिक नज़र नहीं आता। यदि मेरी बात आपको ग़लत लगती है तो आप बेशक हमें उदाहरण के माध्यम से ग़लत साबित कर सकते हैं। भाषाओं के बीच शब्दों का आदान-प्रदान, टॉनिक का काम करता है। यह भाषा की कमज़ोरी नहीं, शक्ति है। अँग्रेज़ी में मूलतः अँग्रेज़ी के कितने शब्द हैं? उसने लैटिन, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी, अरबी, दक्षिण भारतीय भाषाओं और दूसरी अन्यान्य भाषाओं से कितने शब्द लिए हैं? जब आप इसकी गणना करेंगे तो सहज ही समझ जाएँगे कि आख़िर अँग्रेज़ी फ्रैंक्वा-लिंग्वा कैसे बन गई।

हिन्दी के वैश्विक विस्तार में इंटरनेट और संचार क्रांति का बड़ा योगदान है। हाँ, चूँकि कम्प्यूटर या ऐसे ही दूसरे उपकरणों का अविष्कार भारत में नहीं हुआ। इसलिए हिन्दी को तकनीकी होड़ में शुरुआती मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा। लेकिन अब क्या हिन्दी, क्या अँग्रेज़ी! की-बोर्ड पर अँगुली सरपट दौड़ती है। बाज़ार ने जीवन के दूसरे क्षेत्रों को भले ही नुकसान पहुँचाया हो, लेकिन हिन्दी के लिए तो स्वर्ण-युग ही लेकर आया है। भारत में ही नहीं, विदेशों में बसे भारतीय भी अपनी पहचान के रूप में हिन्दी को देखते और इसी वजह से अपने भावों को हिन्दी में ही अभिव्यक्त करने की कोशिश करते हैं। खुद अपने देश के ग्रामीण इलाकों में और शहरी क्षेत्रों में बोली जाने वाली हिन्दी में बड़ा अंतर है। ग्रामीण इलाकों में बोली जाने वाली हिन्दी जहाँ क्षेत्रीय बोलियों के साथ मिलकर चलती है तो शहरी क्षेत्रों में बोली जाने वाली हिन्दी अँग्रेज़ी के साथ दोस्ताना रवैया रखती है।

ब्लॉगिंग करने वाले ज्यादातर लोग शहरी क्षेत्र के हैं। उनकी भाषा में अँग्रेज़ी का मिश्रण नैसर्गिक है। शिक्षित मध्यवर्ग दोनों भाषाओं को पढ़ता-समझता आया है। लिहाजा दोनों में से किसी का भी इस्तेमाल विशुद्ध नहीं है। अगर यकीन नहीं हो तो स्कूल-कॉलेज के लड़के-लड़कियों की अँग्रेज़ी ही सुन लीजिए। कहने की ज़रूरत नहीं कि दूसरी भाषाओं से शब्दों की आवाजाही हिन्दी के लिए नुकसानदेह नहीं, फ़ायदेमंद है।

भाषा नदी की तरह होती है। उसे हमेशा बहते रहना चाहिए। छोटी-छोटी नदियों-नालों के पानी इसमें मिलते हैं तो इसका घनत्व और आयतन ही बढ़ाते हैं। इससे नदी की पहचान का संकट कभी पैदा नहीं होता। संस्कृत के विलुप्त होते चले जाने की बड़ी वजह भी यही है। संस्कृत में शास्त्रीयता का दबाव इतना ज्यादा था कि वह ठिठकी और फिर मरती चली गई। तभी यह कहावत प्रचलित हुई कि संस्कृत ठहरी कूप जल और भासा बहता पानी। तात्पर्य यह कि भाषा को समय के प्रवाह के साथ बहते देने की स्थिति में भाषा की समृद्धि सुनिश्चित रहती है। जबकि शास्त्रीयता या मानकीकरण से भाषा में ठहराव आता है और वह लोक से दूर होती चली जाती है। अँग्रेज़ी का विकास और फैलाव इसका बड़ा उदाहरण है। अब अँग्रेज़ी ही क्यों, ख़ुद हिन्दी की लोकप्रियता और युवा-पीढ़ी में इसकी स्वीकार्यता इसका बड़ा उदाहरण है।

क़िस्साकोताह ये कि ब्लॉगिंग ने हिन्दी को पॉप्यूलर कल्चर से जोड़ा है और इस वजह से हिन्दी का विस्तार पहले की अपेक्षा तीव्र गति से हो रहा है।

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