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हिन्दी पखवारा वास्तविकता नहीं, सरकारी स्यापा है

पर्दा
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अगर किसी व्यक्ति के विचारों की हत्या करनी हो तो उस व्यक्ति को ईश्वर बना दो। लोगों का ध्यान ख़ुद ही विचार से हट कर मूर्ति पर केन्द्रित हो जाएगा। अब लोग व्यक्ति के नाम और उसकी मूर्ति में रूचि लेंगे। समारोह अथवा अनुष्ठान के लिए समय और स्थल निर्धारण होगा। आनुष्ठान की पद्धति और प्रक्रियाएँ तय की जाएँगी। इस तरह से व्यक्ति का महिमामंडन तो होगा, लेकिन उसका विचार धूप-अगरबत्तियों, फूल-मालाओं और कर्मकांडी ढोल-घंटों और चोलों के ज़ोर पर तलघर में दबा दिया जाएगा। महात्मा बुद्ध और वर्द्धमान महावीर इसके सबसे बेहतर उदाहरण हैं। इन दोनों संतों के विचार-उपदेश और उनके अनुयायियों के कर्मकांडी व्यवहार में कोई साम्य नहीं है। ख़ैर, हम यहाँ धार्मिक प्रवचन के लिए नहीं आए। बल्कि हमारा कहना सिर्फ इतना है कि जब हम भाषा या विचार को कर्मकांडों का रूप देते हैं तो मूल लक्ष्य उपेक्षित हो जाता है। संस्कृत समृद्ध भाषा थी, उसका विस्तृत और विपुल साहित्य भी उपलब्ध था। वह न सिर्फ धर्म, साहित्य बल्कि सत्ता की भाषा भी थी। लेकिन आज मृतप्राय है। क्यों? …क्योंकि इसे आम-जन से दूर रखने की कोशिश की गई। क्योंकि इसे जाति-विशेष के अधिकार में रखने के प्रपंच रचे गए और फिर धीरे-धीरे देव-भाषा के रूप में इसे स्थापित कर, आनुष्ठानिक बना दिया गया। आज हम धार्मिक-कार्यों में श्रद्धा-भाव से संस्कृत के श्लोकों को तो दुहराते हैं, लेकिन अपने बच्चों को संस्कृत-भाषा का ज्ञान देने-दिलाने में रूचि नहीं रखते। यहाँ तक कि जिन श्लोकों का हम जाप करते हैं, उनके अर्थों से भी अनभिज्ञ ही रहते हैं।

हम सभी अपनी भाषा का प्रचार-प्रसार चाहते हैं। इसका संबंध न सिर्फ हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता से भी जुड़ता है। भारत जैसे विविधता से परिपूर्ण देश में, जहाँ सैंकड़ों भाषाएँ और हजारों बोलियाँ प्रचलित हों, किसी एक भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना श्रम-साध्य तो है, लेकिन कठिन नहीं है। बशर्ते कि ईमानदार कोशिश हो। लेकिन हमारे यहाँ ‘देह-मिलावा’ पर ही ज़्यादा ज़ोर है। इच्छाशक्ति की कमी नहीं, बल्कि सत्ता की कारस्तानी के कारण हिन्दी का अहित अधिक हुआ है। राष्ट्रभाषा के रूप में इसकी वक़ालत करने वाले प्रारंभिक लोगों में से अधिकांश अहिन्दी भाषी ही थे। लेकिन सत्ता की उदासीनता और क्षेत्रवादी राजनीति ने इसके विस्तार की गति को कुंद किया। सत्ता ने कभी भी हिन्दी को हृदय से स्वीकार नहीं किया। जन-भाषा और सत्ता-भाषा के बीच अलगाव को जान-बूझकर बनाए रखा गया। भारतीय परिदृश्य में परंपरागत रूप से शाषित और शाषक की भाषाएँ अलग-अलग रही हैं। मसलन प्राचीनकाल में संस्कृत, मुगलकाल में तुर्की-फ़ारसी तो ब्रिटिशकाल में अँग्रेज़ी। ऐसे में ये कहना ग़लत नहीं होगा कि आज़ादी के बाद अँग्रेज़ी को राजकाज की भाषा बनाए रखना, विवशता से अधिक शाषक-वर्ग की साजिश का नतीज़ा है।

जनता अगर प्रभु-वर्ग के इस छल को समझ ले तो प्रभु-वर्ग के लिए संकट पैदा हो जाएगा। इसलिए अपने हित में जनता की आँखों पर भ्रम का पर्दा डाले रखने के लिए सिस्टम नित नये हथकंडे अपनाती है। हिन्दी दिवस की आड़ में हिन्दी-भाषा के विकास और विस्तार का नाटक, एक ऐसा ही हथकंडा है। हमारे कई मित्र, जो विभिन्न सरकारी विभागों में कार्यरत् हैं, वे यह मानते हैं कि हिन्दी पखवारा महज दिखावा है और इसकी आड़ में सभाओं-सेमिनारों और रस्मी-आयोजनों की मदद से हर साल करोड़ों रूपये का वारा-न्यारा करने का फुलप्रूफ षडयंत्र भी। उत्तर भारत या यूँ कह लें कि हिन्दी-भाषी राज्यों में सरकारी कार्यालयों अथवा उपक्रमों में कार्यरत् कर्मचारी क्या हिन्दी नहीं जानते? या कि वे हिन्दी में काम नहीं करते? हमें तो बैंक से लेकर रेलवे स्टेशन या डाक-विभाग तक में आवेदन आदि के लिए कभी अँग्रेज़ी का उपयोग नहीं करना पड़ा और न ही विभागीय अधिकारी अथवा कर्मचारी ने इसके लिए दबाव ही डाला।

स्पष्ट है कि हिन्दी-भाषा के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता दक्षिणी अथवा अहिन्दी भाषी राज्यों में है। लेकिन यह काम भी सरकारी उपक्रमों द्वारा साल में एक बार हिन्दी-सप्ताह अथवा हिन्दी-पखवारा आयोजित करने से नहीं होने वाला। ऐसे राज्यों में सम्पर्क-भाषा के रूप में हिन्दी को महत्व दिलाने के लिए इसे जनता में लोकप्रिय बनाना ज़रूरी है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा करने की बजाय कुछ जेबी संगठनों और सत्ता से नज़दीकियाँ रखने वाले सफ़ेद हाथियों को उपकृत करने तक ही हिन्दी-आंदोलन सीमित है। अच्छी बात ये है कि अब दक्षिणी राज्यों में लोग स्वतःसंज्ञान से हिन्दी पढ़ने-सीखने में दिलचस्पी ले रहे हैं और वहाँ हिन्दी बोलने-समझने वालों की तादाद बढ़ रही है। लेकिन यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि इसमें हिन्दी-दिवस या पखवारे का कोई योगदान नहीं है। वैसे भी हमारी हिन्दी जीवित भाषा है और इसमें बोले बिना हम एक दिन भी नहीं रह सकते। जबकि सालाना रस्मी-आयोजन तो किसी की याद को जीवित रखने के लिए होता है। साल में एक बार तो पितरों को याद किया जाता है। मतलब साफ़ है कि हिन्दी पखवारा वास्तविकता नहीं, सरकारी स्यापा है।

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