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सृष्टि के सिर पर सभ्यता का फोड़ा

पर्दा
पर्दा
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दिमाग है कुंद और विचार पर फफूंद
भकुआई हुई दृष्टि में धुँधलाई सृष्टि है
सृष्टि के सिर पर सभ्यता का फोड़ा है
जिस से रिस रहा है बदबूदार मवाद
न जाने कब से बूंद-बूंद लगातार…
मवाद का आयतन ग्रस रहा है धरती
दुर्गंध की त्वरा हो रही है क्रमशः सघन


सड़ते शव कराहते जीव और ठूंठ वृक्ष
वेदना ने कर दिया है जड़ और निशब्द
ध्यान-मुद्रा में लीन सुन रहे आर्तनाद
साध लिए हैं आँख कान पेट और मन
दंभी नाक ने लेकिन कर दिया है बेदम
दुर्गंध की त्वरा हो रही है क्रमशः सघन

कुछ हाथ तोड़ रहे हैं सूखी लकड़ियाँ
कुछ हाथ बीन रहे हैं पके हुए अनाज
कुछ हाथों ने उठा रखे हैं अब तक चकमक
कुछ हाथों में थमी हैं पशुओं की डोरियाँ
कुछ हाथों ने कस कर पकड़ रखा है पेट
कुछ हाथ सिर पर लेप रहे हैं दिलासा
कुछ हाथ रोप रहे पथराई आँखों पर छाँव
कुछ हाथ लहूलुहान हैं कुश नोंच रहे हैं
कुछ हाथ पैनी मूँज से रस्सी बाँट रहे हैं
कुछ हाथ धरती के कूबड़ काट रहे हैं
सपाट धरती पर डलेगी सभ्यता की नींव
हाथ बिल्कुल बेख़बर हैं नहीं जानते कि
दुर्गंध की त्वरा हो रही है क्रमशः सघन

नई सृष्टि के लिए प्रलय की प्रतीक्षा नहीं
पर्वत के शीर्ष पर मनु बैठे हैं पाषाणवत्
कोई उत्कंठा नहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं
मसीहा ने पर्वत-चोटी पर ही बना दिया है
भव्य प्रसाद जिसके मुख्य द्वार पर है दर्ज़
सृष्टि के आदि-पुरुष हैं यहाँ ध्यान में लीन
चीख-चित्कार-रूदन जैसे कृत्य हैं जघन्य
बिलबिलाते होंठ हैं बेबस झुकी हुई है पीठ
पीठ पर लिखी जा रही है सभ्यता की सीख
बजबजाते हैं ज़ख़्म ये सूखते ही नहीं और
रिस रहे हैं ज़ख्म में भरे बदबूदार मवाद
न जाने कब से बूंद-बूंद लगातार…
दुर्गंध की त्वरा हो रही है क्रमशः सघन

सभ्यता की झोंपड़ियों में लगी है आग
काटे जा रहे हैं हाथ फोड़ी जा रही हैं आँखें
भूने जा रहे हैं मनुष्य फैल रही है चिरांध
आते ही जा रहे हैं मसीहा झुंड-दर-झुंड
बाँटा जा रहा है मांस मापे जा रहे हैं लहू
हर हाथ में है नैतिकता का तराजू-बाट
पढ़ाया जा रहा है सभ्यता का नया पाठ
दलदली भूमि पर खोदी जा रही है नींव
अभियंताओं को है उम्मीद कि इस बार
ये मीनार सीधी रहेगी झुकेगी नहीं कभी
नींव से निकल रहा है मवाद सना कीचड़
और दुर्गंध की त्वरा हो रही है क्रमशः सघन

सभ्यताओं के प्रतिनिधि हैं संतुष्ट लेकिन
सभ्यता के जटिल व्याकरण में उलझा मैं
वाक्य संरचना से मुक्ति मिले तो ही गुनुंगा
सभ्यता का पाठ और करूंगा मसीहा से संवाद
अभी तो दिमाग है कुंद और विचार पर फफूंद
भकुआई हुई दृष्टि में धुँधलाई सृष्टि है
सृष्टि के सिर पर सभ्यता का फोड़ा है
जिस से रिस रहा है बदबूदार मवाद
न जाने कब से बूंद-बूंद लगातार…
मवाद का आयतन ग्रस रहा है धरती
दुर्गंध की त्वरा हो रही है क्रमशः सघन

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