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गुब्बारा लोकतंत्र का टोपी युग

पर्दा
पर्दा
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है?
विद्वानों ने अच्छा-खासा नाम दे रखा है
उसी को मानें बेवजह फटे में टाँग क्यों अड़ाते हैं?
सामंती और औद्योगिक, आधुनिक और उत्तर-आधुनिक
सुनते ही गरिमा का अहसास जगता है

गुब्बारा या तो पिचक जाएगा या कि उड़ जाएगा
न आधार न वज़न और न ही दमख़म
हवा के हल्के से झोंके में स्थिति डवाँडोल
थोड़ी गर्मी भी बर्दाश्त नहीं होती इससे
और तो और ज़रा सा तिनका सटा कि फट जाता है
ऐसी अस्थाई चीज़ का किसी युग से क्या नाता है!?
हाँ मौका-बेमौक़ा अगर कोई गुब्बारा फुलाता या उड़ाता है
तो ये और बात है, इसका वज़न से कोई सरोकार नहीं

टोपियाँ तो मनोरंजन का साधन हैं
जैसे फ़िल्में, जैसे नाटक, जैसे कहानी, जैसे कविता, जैसे नाच
जब भी कोई किसी से उकताया झट से उसकी टोपी उछाल दी
जैसे ही किसी ने किसी को चुनौती दी जुगत से टोपी पहना दी
कभी-कभी सम्मान में भी पहना देता है किसी को कोई टोपी
कभी-कभार ही टोपी से पहचाना जाता है कोई व्यक्ति अथवा जाति
हाँ, मुहावरों के लिए ठीक है टोपी
सियासत में भी टोपी की अच्छी पैठ है
लेकिन युग का टोपी से संबंध तो बिल्कुल बकवास है
टोपियों में वज़न होता तो लोग दूसरों को क्यों पहनाते?
सबसे पहले तो ख़ुद अपने ही सिर चढ़ाते और इतराते!
टोपी कोई मानपत्र भी नहीं कि फ्रेम मढ़वा कोई ड्राइंग रूम में लटका दे!
टोपी कोई स्मृति चिन्ह भी नहीं कि टेबुल की शोभा बढ़ा दे
कपड़े का टुकड़ा है, मुड़-चुड़ जाता है
दो-चार बार सर्फ़ और पानी से धुला तो फिर धुल ही जाता है
ऐसी क्षणभंगुर वस्तु का युग से क्या नाता है?

माफ़ करना मेरे बुद्धिजीवी मित्रों, विद्वानों और दृष्टि-सम्पन्न पाठकों
क़ीमत या वज़न किसी वस्तु की नहीं व्यक्ति की होती है
ग़ुब्बारे चाचा नेहरू ने ख़रीदे थे, बच्चों में बाँटा भी था एक बार
वैसे ज़्यादातर मौक़ों पर उन्होंने बाँटने की बजाय गुब्बारे उड़ाए थे
सभी क़िस्म की टोपियाँ अहम नहीं होतीं, सही है लेकिन सोचो तो…
गाँधी का जिस वस्तु से जुड़े नाम, क्या उसकी अहमियत कम होगी?
ठीक है, गाँधी ने शायद ही कभी पहनी हो, लेकिन
उनके अनुयायियों ने कभी सार्वजनिक जीवन में टोपी उतारी ही नहीं
जवाहर का सिर कभी ख़ाली नहीं रहा, टोपी रही
लिहाजा हम दावे के साथ कह सकते हैं कि गाँधी के सिर पर बाल नहीं थे
लेकिन नेहरू के बारे में ऐसा कहने का हौसला नहीं है मुझ में
क्योंकि मेरे पास साक्ष्य नहीं है
नेहरू का सिर सभी तस्वीरों में टोपी से ढंका है
टोपी सिर्फ लोकतंत्र का टोटका ही नहीं, राष्ट्रपिता का स्मृति-चिन्ह भी है

एक नाथूराम है जो पहले तो चरण-स्पर्श करता है फिर गोली मारता है
एक देश है जो गाँधी ही नहीं गाँधीवाद को भी उपभोग की वस्तु समझता है
एक नेता है जो गाँधी के नाम वाली टोपी पहनता है
एक अन्य नेता है जिसने गाँधी की लाठी छीन ली है
गाँधी घुटने के बल ज़मीन पर दोनों हाथों को टेक उठने की कोशिश कर रहा है
एक जनता है जिसके सिर अदृश्य टोपियों से ढंके हैं

लोककल्याणकारी राज्य का ट्रेडमार्क है गाँधी टोपी
जिसे सिर्फ नेता और समाजसेवी ही पहनता है
अच्छी बात ये है कि टोपी का रंग अब तक सफ़ेद है
स्लोगन भले बदलते रहे हों, कट और कलर फिक्स है
गाँधी के विचारों को ग्रंथों में दबा दिया गया है और आलमारी में सजा दिया गया है
किसी ने उसके नाम की टोपी पहन ली है, किसी ने उसकी लाठी हथिया ली है
‘स्वराज’ शाहजहाँ की वो दीवानगी है, जिसने मेहरुन्निसाँ को विधवा बना दिया था
इतिहास पर उपाधी का बोझ बढ़ा था और मेहरुन्निसाँ को मुमताज़ बना दिया गया था
मुमताज़ प्रेम में मरी या ग़म में कौन जानता है?
हाँ, ये सच है कि मौत के बाद उसकी क़ब्र पर महल बनवा दिया गया
लोग प्यार की निशानी मान आज भी पर्यटन को जाते हैं
मैं भी अपने दरबे से साल में निकलता हूँ दो बार
‘स्वराज’ का सपना देखने वाले की समाधि पर चढ़ाता हूँ फूल
पूछता हूँ एक बेहूदा सवाल, जो पूरे साल मुझे कोंचता रहता है
बापू क्या तुम्हारे ‘स्वराज’ का रास्ता राजघाट से जाता है?
क्या तुमने भी गुब्बारे फुलाए थे, हवा में उड़ाए थे?
तुम्हारे नाम की टोपी राजपथ पर ही क्यों दिखती है?
संसद भवन में तुम्हारी टोपी क्यों नहीं चीखती है?
तुम्हारे नाम की टोपी सबसे सस्ती और सबसे ज़्यादा क्यों बिकती है?

बापू चुप हैं और मुझमें ये भय घनीभूत हो रहा है कि कहीं
राष्ट्रपिता से इतना सवाल राष्ट्रविरोधी साबित हुआ तो…
गुब्बारा लोकतंत्र की हवा निकल जाएगी
जेल में बतौर क़ैदी मेरे सिर भी एक टोपी धर दी जाएगी
अच्छा! क़ैदी जो टोपी पहनते हैं, वो गाँधी वाली होती है क्या?

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