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तीन अनमनी-अर्थहीन कविताएँ

पर्दा
पर्दा
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(1) दुःस्वप्नों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं होती

रुदालियों अपने-अपने घर जाओ

यहाँ अब रूदन का कोई अर्थ नहीं

दधीचियों हो सके तो वापस ले लो

अपनी अस्थियाँ कि अब ज़रूरत नहीं

मेरे शूरवीर क्रांतिकारियों तंबू उखाड़ो

कुमुक बंद होने वाला है और युद्ध स्थगित

न्याय-न्याय रटना बंद करो भाई युधिष्ठिर

कोई और काम नहीं है क्या?

आँसुओं ने धुँधला दी है संजय की आँख

अब तो बख़्श दो इसको युग के धृतराष्ट्र

न वो कर सकता है कुछ और न ही तुम

फिर क्यों कर रहे हो समय बर्बाद?

धराधाम पर कुछ भी पापपूर्ण नहीं है अब

जो स्थायी है वही शांति है और वही सुंदरतम

कष्ट-वेदना-धत्कर्म-नरसंहार-अत्याचार और घृणा

ये सबके सब हैं केवल दुःस्वप्न… केवल दुःस्वप्न

उबरने के लिए तोड़ सको तो तोड़ो अपनी नींद

बंद करो ये मिथ्या रूदन!

यह किसी मूर्ख हरिश्चन्द्र का सतयुग नहीं है

जहाँ रहते हो तुम वह प्रबुद्ध लोगों का लोकतंत्र है

यहाँ जो भी होगा वह यथार्थ-सम्मत आईन से होगा

दुःस्वप्नों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की न तो परंपरा है

और न ही कोई संवैधानिक प्रावधान!

*******
(2) नींद ही दुश्मन है

बहुत सोच-विचार और जाँच-पड़ताल के बाद

ये तय पाया है कि दरअसल नींद ही दुश्मन है

जागती आँखों और चेतन दिमाग द्वारा उपेक्षित

घटनाएँ और दृश्य यूँ ही नहीं कर लेते हैं अक्सर

सुंदर सपनों की उपजाऊ ज़मीन का अतिक्रमण

और बो देते हैं वो बीज, जो सोख लेती है उर्वरता

सपनों की ज़मीन को ऊसर बनाने की ये साजिश

चाहे जो भी रच रहा हो लेकिन असली गुनहगार

मेरी निगाह में तो मेरी अपनी ही नींद है…

जो मेरे सोते ही खोल देती है अंतःकरण की कुंडी

और औंघाई उम्मीदों को कुचल देते हैं दुःस्वप्न

अजन्मे सुंदर सपनों को चटा दिया जाता है नून

और जब चीख़ के साथ उठता हूँ तो अँधेरा कमरा

किसी अबूझ अँधेरी सुरंग में हो जाता है तब्दील

यही वह समय होता है जब अँधेरे का लाभ उठा

भाग खड़ी होती है दुःस्वप्नों की गुरिल्ला फौज

और जो मेरे हाथ आता है वो है केवल सन्नाटा

और ख़ौफ़ से पैदा हुई सनसनाहट और कंपकंपी

रपट किसके ख़िलाफ़ दर्ज़ करवाऊँ? कोई नाम!

किसकी हुई हत्या? किस चीज़ की हुई है लूट?

न हत्यारे का पता है और न है हत्या का सुबूत

फिर मेरी अर्ज़ी कैसे हो सकती है मंज़ूर?

वैसे भी लोकतांत्रिक देश में ऐसा कोई क़ानून नहीं है

जिसमें ऐसी किसी धारा का हो प्रावधान

कि जिसके तहत दर्ज़ कराई जा सके

उम्मीदों और सपनों के क़त्ल की शिकायत!

बहुत सोच-विचार और जाँच-पड़ताल के बाद

ये तय पाया है कि दरअसल नींद ही दुश्मन है

इसलिए अब नींद के झाँसे में नहीं आने वाला

अब नहीं सोऊँगा मैं, कि अब जगा ही रहूँगा

क्योंकि सपनों की भ्रूण-हत्या से बेहतर है यही

कि गर्भधारण की संभावना ही हो जाए ख़त्म

कि एक माँ के लिए इससे अच्छा रास्ता क्या है?

जब संभावनाओं की जगह छीन रही हो आशंका

और वैसे भी दुःस्वप्नों के बीच पलने वाला बच्चा

बड़ा होकर सुंदर दुनिया का ख़्वाब नहीं देख सकता

और कोई माँ अपनी औलाद को, अपनी नज़र के सामने

धीमे-ज़हर के ज़ेरे-असर तिल-तिल मरता कैसे देख सकती है!

लिहाजा मेरा यह फ़ैसला अकस्मात नहीं है

बहुत सोच-विचार और जाँच-पड़ताल के बाद

ये तय पाया है कि दरअसल नींद ही दुश्मन है

इसलिए अब नींद के झाँसे में नहीं आने वाला

अब नहीं सोऊँगा मैं, कि अब जगा ही रहूँगा

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(3) हाँ-ना महज शब्द नहीं हैं

फ़र्ज़ कीजिए ‘हाँ’ और ‘ना’ महज दो शब्द नहीं हैं

दो ‘धार’ हैं, जो तलवार पर चढ़े हैं और ‘चोखे’ हैं

यानी तलवार दोधारी है और आपके पैर नंगे हैं

चूँकि आप धार पर चढ़े हैं लिहाजा यह तय है कि

मूठ पर जिस हाथ की पकड़ है वह आपकी नहीं है

मतलब ये कि तलवार पर आपका नियंत्रण नहीं है

मतलब ये कि ‘हाँ’ ‘ना’ पर आपका नियंत्रण नहीं है

मतलब ये कि आप पर आपका नियंत्रण नहीं है

मतलब ये भी है कि आप पर उसका नियंत्रण है

जिसने थाम रखी है तलवार की मूठ

आप सच बोलकर ज़िन्दा हैं!

आपकी ‘हाँ’ या ‘ना’ आपकी थी!

या आपकी पिंडलियाँ पाषाणी थीं!

या तलवार में थी मानवीय संवेदना!

या मूठ थामे हाथ ही निकले कमज़ोर!

क्या एक साथ घटित हो सकते हैं इतने इत्तेफ़ाक?

विश्वास के लिए कम-से-कम एक पूर्व दृष्टांत तो हो!

तलवार से किस युग में स्थापित हुई थी शांति?

कलिंग-युद्ध के बाद कोई कैसे बन सकता है प्रियदर्शी!

लालची सिकंदर भला कैसे हो सकता है महान!

ग़ुलामों के सौदागर को कैसे मान लें हम दयावान?

क्या एक साथ घटित हो सकते हैं इतने इत्तेफ़ाक?

विश्वास के लिए कम-से-कम एक पूर्व दृष्टांत तो हो!

हाँ ये तो मुमकिन है कि आप खा गए हों ख़ौफ़

जोड़ लिए हों हाथ, माँग ली हो जान की भीख

मिला दी हो… उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ और ‘ना’ में ‘ना’

जिसके हाथ में थमी हो… तलवार की मूठ

और आपके ज़िन्दगी की बासी उम्मीद!

मतलब आपकी ‘हाँ’ या ‘ना’ दोनों हैं झूठ

और आपकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध है।

माफ़ कीजिएगा महाकवि आप में साहस की कमी है

आप गोदान के होरी हैं जिसकी गर्दन ज़मींदार के पैरों तले दबी है

जिसके समझौतावादी स्वप्न में खूँटे से एक अदद गाय बंधी है

आपका ठिगना क़द तो है लेकिन आप मैला आँचल के बावनदास नहीं हैं

कि बावनदास की आज़ादी तो तीलियों से बिंधे पहिये के नीचे दबी है

और विचार की पोथी वाली थैली चिथड़ा पीर के हिस्से पड़ी है

आपके लिए भले हों लेकिन मेरे लिए तो ‘हाँ’ ‘ना’ महज दो शब्द नहीं हैं।

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