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यही है हमारा लोकतंत्र

पर्दा
पर्दा
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(राष्ट्रपिता को समर्पित, क्योंकि उम्मीदें कभी मरती नहीं।)

कुछ लोग हिन्दुओं को जगा रहे थे

उनका सोचना था कि देश हिन्दुओं का था

कुछ लोग मुसलमानों को जगा रहे थे

उनका सोचना था कि देश मुसलमानों का था

कुछ लोग राजे-रजवाड़ों का जगा रहे थे

उनका सोचना था कि देश राजाओं का था

कुछ लोग दलितों-वंचितों को जगा रहे थे

उनका सोचना था कि देश दलितों-वंचितों का था

सभी टुकड़ों में जनता को जगा रहे थे

और जनता थी कि सोई पड़ी थी

कोई कुनमुनाता तो कोई बड़बड़ाता

कोई करवट बदलता तो कोई चित्त हो जाता

कोई अपने हाथों को घुटनों के बीच दबा लेता

कोई अपनी बाँह अपनी आँखों पर रख लेता

कभी-कभार कोई जम्हाई ले लेता

कोई आँखें मलकर उठ-बैठता और फिर सो जाता

जगाने वाले अचंभे में थे

बेचैन पताकाएँ फड़फड़ा रही थीं

किसिम-किसिम के नारों का गूँगा शोर

ध्वनि प्रदूषण तो फैला रहा था लेकिन…

जनता को जगाने में बिल्कुल नाकाम

मस्त मालिक कभी इनकी तो कभी उनकी

पीठ सहला रहे थे, पुचकार रहे थे, उकसा रहे थे

इनकी बेबसी और नाकामी पर ठहाके लगा रहे थे

सभासद सभी, अपनी-अपनी क्रांतियों में उलझे

पराजित जाति की दासता पर आँसू बहा रहे थे

विलायत से लौटा नौजवान सभी के दरवाज़े गया

सभी की आंदोलित सभाओं में पहुँचा

सब के सब अनुयायी ढूंढ रहे थे जबकि

युवक कुछ विचार लेकर आया था

किसी ने नहीं सुनी और वह लौट गया

अचरज ये कि ऐसा तब हुआ, जब सभी आज़ादी चाहते थे!

उम्मीदें नदी की धारा जैसी होती हैं

हारती नहीं, फिर-फिर लौटती हैं

भ्रम के भंवर भी तोड़ती हैं

वो फिर लौटा

कमज़ोर जिस्म और लाठी लेकर

यह कितनी अजीब बात थी!

उसके हाथ थमी लाठी सिर नहीं फोड़ती थी

किसी की कमर भी नहीं तोड़ती थी

यह लाठी सहारा बनती थी, सहारा देती थी

फिर भी इस लाठी से सत्ता डरती थी

बंदूकों, तोपों और गोलों को समर्पण करना पड़ा

नफ़रत दुम दबाने को मज़बूर हो गई और

एकाकी कबीलाई संघर्ष सिर पकड़ बैठ गया

अब हिन्दू-मुसलमान या कोई पंथ नहीं

हिन्दुस्तान जगने लगा, सत्ता डरने लगी

युद्ध का नियम तो सिर के बदले सिर था

लाठी के बदले लाठी थी

लेकिन अहिंसक लाठी के मुक़ाबले हिंसक लाठी!!

कुछ ही दिनों में शर्माने लगे अँग्रेज़, छोड़ दिया देश।

नैतिकता की लाठी ने तो अँग्रेज़ों को नैतिक बना दिया

लेकिन हम ही रह गए अनैतिक, बन गए पाशविक

हमने गाँधी की लाठी तोड़ी, गाँधी को मारा

लोकतंत्र के सपनों की तोड़ दी कमर और

भेड़ियों ने फिर से थाम लिया झंडा

रंग और प्रजाति के आधार पर बनाए भेड़ों के झुंड

बनाया पार्टी-तंत्र, बनाया समूह-तंत्र और कहा-

यही है हमारा लोकतंत्र! यही है हमारा लोकतंत्र!!

वैसे अच्छी बात यह है कि लाठी सिर्फ टूटी है

सत्ता की नींव में भले दबी हो, अभी सड़ी नहीं है

लोकतंत्र के सपने ज़िन्दा हैं, उम्मीदें मरी नहीं हैं

जनता लड़ी है, लड़ रही है… अभी हारी नहीं है।

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