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रेत की परतें (कहानी, भाग-1)

पर्दा
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बाढ़ का पानी अब उतार पर था। जलमग्न धरती कहीं-कहीं अपना कूबड़ दिखाने लगी थी। छोटी-छोटी मछलियों की छलमलाहट बढ़ गई थी। वही जल-धारा, जो कल तक उन्मादिनी सी हिलोरें मार रही थी, आज सुस्त-सी नज़र आ रही थी। डूबता सूरज भी आज अनासक्त-सा पानी को बस छू-कर चला गया था। उसने डूबने में दिलचस्पी ही नहीं ली। सीमा की यह साध तो पुरानी ही थी, लेकिन आज ही दिल से ज़ुबाँ तक का सफ़र तय कर पाई थी। उसने सरजू की बाँह पर अपनी पकड़ थोड़ी मज़बूत करते हुए कहा- ‘क्या हम सुबह फिर यहाँ आ सकते हैं? मैं देखना चाहती हूँ कि डूबी धरती, पानी से उबरने के तुरंत बाद कैसी लगती है?’ सरजू ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया और फिर निगाहें पानी के बीच उभरे धरती के कूबड़ों पर टिका दीं। सीमा जैसा उल्लास-मिश्रित विस्मय, सरजू के चेहरे पर नहीं आ पाया था। वहाँ विषाद की एक और गहरी परत जम गई थी। ठीक वैसे ही, जैसे पानी उतरते समय उर्वर धरती पर बालू की एक मोटी अनुपजाऊ परत छोड़ जाता है। सरजू सोच रहा था- ‘क्या बेग़म-बादशाहों की तरह ही फ़सलों की क़ब्रें भी आकर्षक हुआ करती हैं, कि लोग देखने को दौड़ पड़ते हैं!?’
त्रासदी सामूहिक अवधारणा नहीं है। सीमा के लिए बाढ़ की अनुभूति रोमांचक है। उसके लिए तो नदी का बौराना और किनारों का अतिक्रमण कर, फैलते चले जाना ‘डेयरिंग एक्ट’ है। तमाम ऊबड़-खाबड़ धरती को जल समतल बना देता है। गड्ढे और टीले अपना वजूद खो देते हैं। किसान की लहलहाती उम्मीदों पर मटमैले रंग का पानी ठाठें मारने लगता है। काठ की कश्तियों का बेड़ा अवतरित होता है। पानी की उफनती-बलखाती धारा में कश्ती का इतराना, सिंदबादी यात्रा का रोमांच भरने लगता है। पानी उतरते वक़्त भले ही ज़ख़्म और मवाद छोड़ गया हो, लेकिन गाद का क्रीम पोते गीली ज़मीन तब सिल्की नज़र आने लगती है …और सम्पन्न हाथों की कोमलता उसका स्पर्श पा-कर, अद्भुत अनुभूति को संजोने की उतावली में पैरों को जबरन कीचड़ में धकेल देती है।

‘आउच्च!’ …सीमा के मुँह से निकले इस कराह-मिश्रित शब्द ने सरजू का ध्यान भंग किया। सीमा की हाई-हील के साथ ही उसका टखना भी कीचड़ में धँसा देख, सरजू के चेहरे पर भी झुंझलाहट की कीच के कुछ छींटे आ पड़े। ‘यार तुम अर्बन मिडिल क्लास लड़कियों की यही समस्या है। हर वक़्त बेमतलब का रोमांटिसिज़्म ओढ़े फिरती हो। शुक्र करो कि हाई हील ने बचा लिया, वर्ना अभी ‘मड-थिरैपी’ हो गई होती- तुम्हारी।’ सरजू के इस रिएक्शन ने सीमा का दर्द और बढ़ा दिया। आँखें डबडबा आईं। चेहरा सूख गया। उसने कुछ कहा नहीं। बस शॉक्ड-सी, नम-आँखों से सरजू को देखती रही। सरजू को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने आहिस्ता से ‘सॉरी’ कहा और उसे बाजू में उठा, सूखी ज़मीन पर ले आया। ‘अब इतना भी दुखी मत हो-ओ, कीचड़ ही लगा है। अभी घर चलकर धो लेना।’ …सीमा चुप ही रही, लेकिन उसके चेहरे पर निराशा के कुछ आवारा बादल अब भी भटक रहे थे। उसने गाँव आने के बाद ही यह नोट किया था कि सरजू में अचानक कुछ ऐसे बदलाव आ गए हैं, जो कम से कम उसके लिए ‘अन-एक्सपेक्टेड’ थे।
सरजू नहीं चाहता कि सीमा का दिल दुखाए। जब से वह उसको लेकर गाँव आया है, बेहद सचेत रहता है- इसको लेकर। लेकिन लाख सावधानी के बावजूद, उसकी सोच और ज़ुबान अक्सर बेक़ाबू हो रही है। सीमा को त्रासदी का सही अर्थ नहीं पता। सीमा बाढ़ का भय नहीं जानती। सीमा खोने का मतलब नहीं समझती। ठीक है, लेकिन इसमें सीमा का क्या क़सूर? उसने जब इन्हें वास्तविक अर्थों में अनुभूत ही नहीं किया, फिर वह कैसे सरजू जैसी गंभीरता ओढ़ सकती है? क्या ऐसी अपेक्षा सीमा के प्रति अन्याय नहीं है? सरजू ग्लानि से भरता जा रहा है। उसकी आँखों के कोरों पर मोती जैसी बूँदें चमकने लगी हैं। वह बुदबुदा रहा है, गोया ख़ुद ही से जिरह कर रहा हो- ‘यार 7 साल तो हो गए। उबरने को अब और कितना वक़्त चाहिए? कोसी तो कब की लौट गई, अपनी पेटी में! हम क्यों नहीं लौट सकते? भूत का ज़हर-बुझा तीर, क्यों मेरे वर्तमान को बार-बार घायल करता है?’

बाढ़ के पानी की ही तरह सीमा का जोश भी अब अपने उतार पर था। बाढ़, नाव, मछली, तैराकी सब अपना आकर्षण समेट रहे थे। ‘एडवंचर’ की जगह अब एक नामुराद क़िस्म की उदासीनता और खीझ भरी ख़ामोशी ने सीमा के दिल में अपना घोंसला बनाना शुरु कर दिया था। वह अब उस दिन को कोस रही थी, जब अख़बार में बाढ़ की ख़बर देख, मचल उठी थी और सरजू को सुपौल, उसके गाँव चलने पर मजबूर कर दिया था- ‘प्लीज सरजू चलो ना! तुम्हारा तो घर है वहाँ। तुम्हीं तो कहते हो कि तुम्हारा घर कोसी के बिल्कुल क़रीब है। मैं देखना चाहती हूँ कि आखिर बौराई नदी कैसी दिखती है! अपनी बहन गंगा से मिलने की उतावली में कोसी क्या कुछ करती है? देखना चाहती हूँ। प्लीज़ चलो ना!’ सीमा कोस रही है ख़ुद को… सरजू के चेहरे पर अचानक उभर आई असहजता को उसने तब इग्नोर क्यों कर दिया था? उसकी आँखों में अचानक उमड़ आए सैलाब को वह क्यों नहीं देख पाई थी? न-न अब और नहीं… अगर मैं यहाँ रुकी तो सरजू की तरह मैं भी बीमार पड़ जाऊँगी। मुझे जल्द से जल्द लौटना ही होगा।

‘सुनो, मुझे दिल्ली लौटना है।’ सीमा की आवाज़ में नमी के बावजूद दृढ़ता थी।

‘क्यों? क्या हुआ? शेड्यूल्ड रिटर्न में तो अभी पाँच दिन बाक़ी है!’ सरजू की आँखों में ही नहीं, आवाज़ में भी अचंभे का भंवर था।

‘जो देखना था, वो देख लिया। वैसे भी अब कोसी शांत हो रही है। पानी उतर रहा है। कुछ बचा ही कहाँ देखने के लिए…’ सीमा ने आकाश के उस छोर पर नज़र टिका रखी थी, जहाँ वह धरती से मिलता प्रतीत हो रहा था और सूरज अपनी रोशनी और गर्मी समेट-कर वहीं-कहीं गुम होने की फिराक़ में था।

‘अरे अभी तो तुमने ठीक से कुछ देखा भी नहीं। पानी उतरने के बाद भी तो बहुत कुछ देखना है- तुमको।’ विस्मय भरी छोटी सी चुप्पी के बाद सरजू ने फिर कहा- ‘तुम्हें कुसहा भी तो जाना है, बैराज देखने! अभी गाँव के लोगों से भी तुम्हारी मुलाक़ात नहीं करवाई, मैंने। …’

‘अरे नहीं! कुछ चीज़ें बिना देखे भी तो देख ली जाती हैं। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि मैंने उबलती कोसी देखने के बाद ही सबकुछ देख लिया हो जैसे…’ सीमा ने सरजू को बीच में ही टोक दिया। उसके हाव-भाव से स्पष्ट था कि अब वह किसी भी क़ीमत पर, यहाँ और रुकने को तैयार नहीं है।

सरजू को लगा कि अब सीमा से रूकने की रिक्वेस्ट बेमानी है। ‘वैसे भी, सीमा से मेरा रिश्ता ही क्या है? नॉर्मल फ्रेंडशिप ही तो…!’ ऐसा सोचते ही, उसने मुँह बिचकाया और हथियार डालने वाले अंदाज़ में कहा-

‘ठीक है फिर… लेकिन दो-तीन दिन वेट करना पड़ेगा। मजबूरी है। कल किसी से नाव उधार करूँगा और जाऊँगा सुपौल। देखें रिज़र्वेशन…’ सीमा ने बीच में ही टोक दिया-

‘रिज़र्वेशन नहीं मिले तो भी चलेगा। ज़िन्दगी हमेशा आरक्षित डिब्बे में पसरने का नाम नहीं है। मैं देखना चाहती हूँ एक बार कि लोग जेनरल डिब्बे में सफ़र कैसे करते हैं?’

सीमा की बात कोई चुटकुला नहीं थी, फिर भी सरजू ने ज़ोरदार ठहाका मारा। ठहाके में घुली तुर्शी और व्यंग्य की बेहद बारीक सुइयाँ, सीमा के दिल में झटके से पेवस्त हो गईं। ऐसा लगा जैसे यह ठहाका नहीं था, बल्कि उसके बिल्कुल नज़दीक कोई बम ब्लास्ट हुआ था और वह उसकी ज़द में आ गई थी। उसने सरजू की तरफ नहीं, उतरते पानी और धरती के बेडौल कूबड़ों को देखा और बिना कुछ कहे घर की तरफ मुड़ गई।

मनुष्य की सौंदर्य-दृष्टि भी गिरगिट से कम नहीं है। मूड के हिसाब से बदलती रहती है। कल तक यही कूबड़ उसको बेहद ख़ूबसूरत लग रहे थे। कदली ज़मीन को छूने का दिल कर रहा था। और आज, अभी अचानक उसके नथूनों ने बदबू का भयानक हमला झेला है। जी मितला रहा है। पानी उतरने के बाद के दृश्य वातावरण को भयावह बना रहे हैं। कीचड़-सनी सड़कनुमा पगडंडियों के सहारे गाँव घूमने की कल्पना मात्र से पैर के तलवों में खुजली सी होने लगी है। जिस जलकुंभी के फूलों को बेवजह तोड़, गुलाब की तरह बालों के जूड़े में खोंसने की नाकाम कोशिश में सीमा ने डगमग कश्ती पर घंटों गुजारा था, आज गीली ज़मीन पर लकवाग्रस्त मरीज़ की तरह पड़ी उसी जलकुंभी को देख उसे घिन्न आ रही है। उसके बदन में झुरझुरी सी हो रही है। चारपाई की बजाय सीलन भरे कच्चे फ़र्श पर सोने की ज़िद ठानने वाली सीमा को आज चारपाई पर भी नींद नहीं आएगी। बाढ़ के रोमांच की अनुभूति धीरे-धीरे लोमहर्षक दृश्यों में तब्दील हो रही है। वह सोच रही है- ‘क्या यह शापित संवेदनाओं का गाँव है? सरजू भी तो यहाँ आने के बाद ही से बेतरतीबी का शिकार है। क्या इसीलिए वह गाँव आने से कतराता है? ओ माय गॉड! कहीं ऐसा न हो कि यही वितृष्णा मुझे सरजू… नो-नो…’ आगे की बदहवास सोच को सीमा ने जबरन परे धकेल दिया।

‘सीमा तुम्हें अचानक ये क्या हो गया है?’

‘नहीं! मुझे क्या होगा? कुछ नहीं…’

‘झूठ मत बोलो..! तुम्हारा चेहरा… तुम्हारी आँखें और तुम्हारी आवाज़ तक चुगली खा रही हैं।‘

‘अरे नहीं यार, तुम ग़लत समझ रहे हो। ऐसा कुछ भी नहीं है। तुम बेवजह परेशान हो रहे हो।‘

‘हा-हा-हा… तुमको क्या लगता है, तुम कहोगी और मैं मान लूँगा? जानता हूँ तुमको…’

‘तो ठीक है। फिर बंदोबस्त करो, जितनी जल्दी संभव हो सके।‘

‘बाबा वो तो कर ही रहा हूँ। लेकिन आज क्या मेरे साथ कहीं घूमने नहीं चलोगी?’

‘कहाँ?’

‘एक मुर्दों का टीला…’

‘ओ गॉड! मैं नहीं जा सकती।‘ सीमा ने बीच में ही टोक दिया।

‘अरे-अरे… वहाँ पर भूत-प्रेत नहीं रहते। नाम है जगह का… वहाँ एक पागल सा इंसान रहता है। उसी ने रेत को बटोर-कर एक टीला बनाया है और उसी को चीख़-चीख़ कर मुर्दों का टीला बताता रहता है। हालांकि टीला रोज़ आवारा हवाओं की ज़द में आकर ढह जाता है। इसलिए, वह हमेशा वहीं रहता है और लगातार रेत जुटाता रहता है। मुझे विश्वास है कि उससे मिलने के बाद तुम्हारी नाराज़गी थोड़ी कम हो सकेगी।‘

सीमा कुछ बोल नहीं रही। वह सिर्फ सरजू को देख रही है। अपलक… पता नहीं क्या सोच रही है! क्या ढूँढ रही है? वह जाना तो नहीं चाहती। लेकिन जाएगी- सरजू के लिए।

चारों तरफ रेत का विस्तार। हरियाली की बेवफाई के शिकार पेड़-पौधे। सिर्फ कुछ सूखी-झुकी डालियाँ, टेढ़े-ऐंचे तने। बेपर्दा-बेदम और उखड़ी हुई जड़ें। लूले-लंगड़े अभिशप्त पेड़ों की लाशें। बरसात की बेशर्म धूप ने सीमा को परेशान कर दिया है। आँखें चौंधिया रही हैं। रेत में चप्पल पहन-कर चलना मुश्किल हो रहा है। आवारा रेत-कण, चप्पल और तलवों के बीच घुस-कर गुदगुदी कर रहे हैं। लिहाजा सीमा ने चप्पल उतार लिए हैं। अब उसके पैर बालू के गद्दे को रौंदते और ख़ुद भी उसमें धंसते हुए, आगे बढ़ रहे हैं। मुर्दों का टीला अभी काफ़ी दूर है। हाँ, एक टेर अब कान के पर्दों पर दस्तक देने लगी है। दर्द में डूबी आवाज़, इस वीराने को और वीराना बना रही है।

तुम क्या जानो नीतीश-बिजेन्दर, कैसे सबो-रोज़ जीते हैं?

वीराने में बैठे बेबस-बेघर हम ज़हर ज़िन्दगी का पीते हैं।

‘ये आवाज़ उसी पागल की है। जानती हो सीमा, इस पागल का नाम डॉक्टर समी है। यहाँ रेत के नीचे एक बस्ती दफ़्न है। अभी हम जिस रेत पर चल रहे हैं, वह कभी आबादी से भरपूर बस्ती थी। अब रेत का मैदान। समी कभी सुपौल के मशहूर सर्जन हुआ करते थे। अब पागल हैं। पागल शायर।’ सरजू बोले जा रहा है। आवाज़ में नमी उतर आई है। सीमा को अभी-अभी रेत के एक छोटे ढूह से ठेस लगी है और वह गिरते-गिरते बची है। वो हैरत से अपना आकार खो चुके उस छोटे से ढूह को देख रही है। ‘रेत-कणों का मामूली ढूह भी इतना शक्तिशाली हो सकता है कि क़दम लड़खड़ा उठें! …यहाँ कुछ भी मुमकिन है।’ वह सिर को हल्का झटका देती है और सामने थोड़ी दूरी पर दोनों हाथों से रेत इकट्ठा करते एक शख़्स पर नज़रें टिका देती है।

दाढ़ी और सिर के लंबे बेतरतीब बालों ने चेहरे को ढंक रखा है। मूँछ के बाल अगर आप हटाकर देखेंगे तो पपड़ाए ज़ख़्मी होंठ नज़र आ जाएँगे। आँखों में कीच भरी है। आवाज़ फटी हुई है। चीख़ते-चीख़ते उसके गले की नसें उभर आई हैं। पता नहीं कौन और कब कुछ खाने-पीने को यहाँ रख जाता है? पूरे जिस्म पर रेत की कई परतें चढ़ी हैं। पता नहीं किस मिट्टी का बना है- यह इंसान! कोसी का पानी उतरने के बाद से यहीं बैठा है। पिछले सात सालों में कोसी फिर उस तरह कभी नहीं बौराई …और अब तो यह जगह फिर से वही पुराना दावा दुहरा सकती है कि यहाँ कभी बाढ़ आ ही नहीं सकती! …जाड़ा, गर्मी, बरसात… मौसम कोई भी हो! ये पागल यहीं रहता है। शुरू-शुरू में कुछ लोगों ने झोंपड़ी बना दी थी। लेकिन पागल ने कभी उसमें झांका नहीं। सीमा की चेतना जड़ हो गई है- बिल्कुल प्रस्तर मूर्ति की तरह। चेहरे पर न कोई भाव है और न ही होंठों में कोई जुंबिश। आँखों में भी सिर्फ पथरीलापन है।

‘ठहरो!’ …बेहद सर्द आवाज़ ने सरजू और सीमा के बढ़ते क़दमों पर ब्रेक लगा दिया है। पागल और इनके बीच महज चंद क़दमों का फासला ही बचा था, जब रेत इकट्ठा करते उस पागल का ध्यान भंग हुआ। दो अजनबियों को देख, उसकी आवाज़ अचानक तेज़ हो गई है। ग़ुस्से से उसकी आँखें लाल हो उठी हैं। उसका कमज़ोर जिस्म काँप रहा है। थरथराहट भय की नहीं, नफ़रत और ग़ुस्से की है। ‘क्या लेने आए हो? मुआवज़ा दोगे? शोग जताओगे? बर्बादी का मज़ाक उड़ाओगे? दफ़ा हो जाओ, यहाँ से…।’ पागल की भिंची मुट्ठियाँ, कसे जबड़े और नफ़रत में लिथड़ी आवाज़ ने सीमा को भय से जड़ कर दिया है। सरजू के चेहरे पर दर्द एक बार फिर से हरा हो उठा है। ‘चाचा हम सरकारी कर्मचारी नहीं हैं। हम हैं- सरजू। आपका सरजू, जिसको आप ही ने दिल्ली भेजा था, पढ़ने के लिए।’ पागल ने आँखें भींच-कर दोबारा सरजू को ग़ौर से देखा है। पहचानने की कोशिश की है। ‘कौन सरजू? हम तो नहीं जानते। कहाँ से आए हो?’ सरजू की आँखों में अब नमी उतरने लगी है। आवाज़ में भारीपन आ गया है। किसी तरह उसके गले से आवाज़ निकली है- ‘हम लटौना से आए हैं चाचा, आपने ही तो ज़िन्दगी दी थी। अब आप ही पूछ रहे हैं!’

‘अरे झूठ क्यों बोलता है? मैं कौन होता हूँ ज़िन्दगी देने वाला? ज़िन्दगी दे पाता तो मुर्दों के टीले पर रेत क्यों चढ़ाता? देखता नहीं! रूहों के जिस्म बार-बार बेपर्दा हो रहे हैं। हवा बहुत कमीनी है।’

‘वो हादसा था- चाचा। भूल जाइए- सब।’

‘हाँय! तू तो नेताओं की भाषा बोल रहा है। अभी तो कह रहा था कि नेता नहीं है! कौन है तू?’

अब सरजू का धैर्य टूट रहा है। वह बिलखने लगा है। पागलों की तरह रेत हँसोत रहा है। टीले पर पागल के साथ रेत चढ़ा रहा है। घुटी-घुटी आवाज़ में कह रहा है- ‘हम भी बदनसीब हैं चाचा। हम दोनों बदनसीब हैं चाचा। हमने भी परिवार खोया है। कुनबे की लाश पर रोने वाला, मैं भी इकलौता ही हूँ।’

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