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रेत की परतें (कहानी, भाग-2)

पर्दा
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अब पागल संयत हो रहा है। आवाज़ की तल्ख़ी धीरे-धीरे रेत में घुल रही है। वह सरगोशी वाले लहज़े में फुसफुसाता है- ‘हाँ, सुन! किसी साले नेता को आने मत देना इधर… छोटे-छोटे बच्चे अभी सोए ही हैं। बहू-बेटियाँ भी बेपर्दा हैं। बुज़ुर्गों की आहें-कराहें घुली हैं, इस रेत में। उनके नापाक क़दमों की आहट से ये दुनिया भी ख़तरे में पड़ जाएगी।’

सरजू से अब रहा नहीं जाता। वह फफक पड़ा है। सीमा की आँखों के कोर भींगने लगे हैं। पागल ने डपट दिया है। ‘चुप रहो। शोर क्यों करते हो? तुम भी सरकारी हरकारे हो क्या? कहा न, सभी नींद में हैं। जगे तो कोसी को लील जाएँगे।’

अभी-अभी पागल की निगाहें सीमा पर पड़ी हैं। उसने सरजू से पूछा है- ‘ये लड़की कौन है?’

‘हमारी दोस्त है चाचा। आपसे मिलना चाहती थी, सो साथ लेता आया।’

पागल अब अपनी फटी लुँगी की फेंट में कुछ टटोल रहा है। थोड़ी देर बाद, उसके हाथ में एक बेहद पुरानी काई जमी अंगूठी नमूदार हुई है। उसने सीमा को इशारे से पास बुलाया है। उसकी हथेली पर अंगूठी डाल, तुरंत मुट्ठी भींच दी है और अब सरजू से मुख़ातिब हुआ है- ‘सुनो! इसे जितनी जल्दी हो सके, गाँव से लेकर निकल जाओ। दोबारा मत आना। मैं यहाँ हूँ। रेत में बसी ज़िन्दगियों की हिफ़ाज़त मेरी जिम्मेदारी है। जाओ।’

अब सरजू और सीमा लौट रहे हैं। सरजू के क़दम और भारी हो उठे हैं। सीमा का मन अब हल्का होता जा रहा है। पागल की आवाज़ एक बार फिर वीराने में गूंजती है- ‘कभी मत लौटना।’ वह एक बार फिर अपनी धुन में मस्त हो गया है।

भावनाओं के ज्वार और नदी का उबाल, दोनों में एक ख़ूबी ‘कॉमन’ है। जितनी तेज़ी से चढ़ती हैं, उतनी तेज़ी और सफ़ाई से कभी उतरती नहीं। पानी उतरने के बाद खेतों के सूखने और आबाद होने में वक़्त लगता है। ताल-तलैया और गड्ढे, पानी को उसी रफ़्तार से लौटने नहीं देते। रोक लेते हैं। सारा पानी नदी में कहाँ लौटता है! सरजू अभी उबर नहीं पाया है। होंठ और उसके इर्द-गिर्द नसों का अनियंत्रित कम्पन और आँखों के किनारों पर अटकी बूँदें, अभी कुछ दूर और उसके साथ ही चलेंगी। सीमा के लिए यह सबकुछ तिलिस्मी है। वह आसेबज़दा राजकुमारी सी रेत को घूरती, छोटे-छोटे क़दमों से दूरी नाप रही है। उसकी भी आँखें लाल हैं। नाक के दोनों हिस्से बेलगाम हो गए हैं और बार-बार अपना परिधि-विस्तार कर रहे हैं। मुर्दों का टीला बहुत पीछे छूट गया है, लेकिन अब तक सीमा ने सरजू की तरफ एक बार भी नहीं देखा है। हाँ, इस बीच वह एक बार रुकी है और अँगूठी को दुपट्टे के एक सिरे में कस-कर बाँध लिया है।

‘उफ्फ! बहुत गर्मी है। मैं थक गई हूँ। थोड़ी देर रुकोगे नहीं?’ सीमा की आवाज़ में थकन से ज़्यादा दर्द घुला हुआ है। सरजू के बढ़ते कदम थम गए हैं। उसने मुड़कर देखा है और बिना कुछ कहे, किसी पके फल सा, ‘लद’ से रेत पर बैठ गया है। सीमा ने रेत पर घुटने टेक दिए हैं और पहली बार वह अपने दुपट्टे से सरजू की आँखों के कोर पोंछने, आगे झुकी है।

मानो बादल फटा हो! मानो किसी डैम में बरसों से जबरन रोके गए पानी ने बैराज को तोड़ दिया हो और अब हाहाकार करता हुआ, रवाँ हो उठा हो! सीमा का दुपट्टा ही नहीं, कमीज़ भी तर-ब-तर हो गई है। पानी का ग़ुस्सा धीरे-धीरे कम हो रहा है। धार की रफ़्तार घट रही है। दोनों सुबक रहे हैं। चेहरे की मलिनता घुल रही है। मन हल्का हो रहा है। दोनों अब संयत हो उठे हैं। रूदन के बाद मनहूस मौन को सरजू ने छेड़ा है। ‘सॉरी यार, बहुत कोशिश करता हूँ। ख़ुद को बहुत समझाता हूँ। लेकिन बेबसी का बोझ है कि उतरता ही नहीं। अक्सर ख़ुद को मुजरिम महसूस करता हूँ। काश उस मनहूस रात मैं दिल्ली में नहीं, यहीं अपने घर में पड़ा सो रहा होता! कम से कम मातम की इस बेरहम जिम्मेदारी से तो मुक्त हो गया होता। जान ही तो जाती।…’ सीमा ने कुछ कहा नहीं, सरजू के होठों पर सिर्फ हथेली चिपका दी है। अब सरजू ने सीमा को देखा है। वह अचरज में है- यह कौन सा रूप है, इस लड़की का!?

सूरज अब भी सिर पर है। लेकिन सीमा के दिल में ठंडक उतर आई है। उसने एक लंबी साँस खींची है और सरजू का हाथ थाम चल पड़ी है। अभी सरजू की हालत ठीक वैसी ही है, जैसी किसी दो-तीन साल के बच्चे की उस वक़्त हुआ करती है, जब उसे किसी वजह से उसकी माँ जबरन बाँह पकड़, घर की तरफ़ खींच रही होती है। पाँच साल के साथ में यह पहला मौक़ा है, जब सरजू सीमा को लेकर इतना सहज और आत्मीय महसूस कर रहा है। ये चुलबुली लड़की आज अचानक बूढ़ी अम्मा में तब्दील हो गई है। वह चाहता तो बाजू छुड़ा सकता था, लेकिन उसने ऐसा किया नहीं। हाँ, जिस्म को ज़रूर ढीला छोड़ दिया है, ताकि सीमा को दिक़्क़त न हो। जब मन हल्का हो तो पैरों को पंख लग जाते हैं। दूरी का अहसास नहीं होता। दोनों कब घर पहुँचे, पता ही नहीं चला।

सरजू ख़ुद ही बरामदे से खाट उठा लाया है। दोनों आँगन में चारपाई पर बैठ गए हैं। काकी ने मकई का भूंजा, कच्ची मिर्ची और नमक सजी थाली सामने टूल पर रख दी है। कुटुर-कुटुर के एकरस संगीत को सीमा ने भंग किया है- ‘सुनो! ज़्यादा परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। हमलोग आराम से चलेंगे। लेकिन हाँ, मैं कुसहा देखने नहीं जाऊँगी।’ सरजू के चेहरे पर कई दिनों बाद आज नैसर्गिक मुस्कान लौटी है। उसने कहा है- ‘ऐज़ यू लाईक।’

‘घर को ठीक क्यों नहीं करवाते? कितना उजाड़ सा लगता है!’

‘किसके लिए ठीक करवाऊँ? मुझे नहीं रहना यहाँ। रहूँगा तो दुःस्वप्नों से मुक्त नहीं हो पाउँगा।’

‘कैसी बातें करते हो! तुम न सही, काकी को तो यहीं रहना है। उनकी प्रॉब्लम के बारे में तो सोचो।’

‘काकी को तो कई बार कहा है कि दिल्ली शिफ्ट कर जाए- मेरे साथ। लेकिन मानती ही नहीं।’

‘ठीक ही तो नहीं जातीं। पूरी ज़िन्दगी तो यहाँ गुजारी, अब मरने के लिए दिल्ली चली जाएँ!’

‘यार हद्द है! यह रहने की जगह है?’

‘क्यों रहने की जगह कैसी होती है?’

‘अब तुमसे डिबेट कौन करे। काकी जब तक हैं, तब तक हैं। उनके बाद तो मैं इधर झांकूँगा भी नहीं।’

‘लेकिन मैं तो अब एट लिस्ट साल में एक बार ज़रूर आउँगी।’

सीमा के इस नये इरादे ने सरजू को चौंका दिया है। वह बिल्कुल अवाक्… उज़बक सा सीमा को घूर रहा है।

‘ऐसे क्या देख रहे हो? पहले कभी ख़ूबसूरत लड़की नहीं देखी क्या?’

सचमुच, सरजू ने अब से पहले ऐसी पागल लड़की नहीं देखी- कभी। यह लड़की कोई और ही है। यह सीमा नहीं हो सकती। जिस सीमा को सरजू जानता है, वह तो यह बिल्कुल भी नहीं है। चंचल-अल्हड़-मनमौजी… तभी तो हमेशा वह इससे बचने की कोशिश करता रहा है। कभी इस ‘फ्रेंडशिप’ को उसने गंभीरता से नहीं लिया। बल्कि सच तो यह है कि वह मन-ही-मन हमेशा इसी गुनधुन में रहा है कि ‘लिबरलाईजेशन’ की पैदाईश इस ‘मॉड कैरिकेचर’ से चाहे जिस तरह भी हो, पीछा छूटे। लेकिन सीमा है कि ‘माया’ की तरह लगातार इसके साथ ‘लिपटी’ रही है। सरजू सिर्फ़ इसलिए उसको बर्दाश्त करता रहा है, क्योंकि वह किसी भी संबंध को तल्ख़ी की तलवार से खत्म करने में विश्वास नहीं रखता। बाढ़ देखने के लिए सुपौल आने की ज़िद भी…। सरजू के सोच की लगाम सीमा ने खींच दी है।

‘हलोs। कहाँ खो गए मिस्टर?’

‘नहीं… कहीं नहीं।’ सरजू लौट तो आया है। लेकिन वह बोलने की बजाय एक बार फिर सीमा को अपलक देख रहा है। उसके चेहरे पर सिर्फ एक अलसाई मुस्कान बार-बार अंगड़ाई ले रही है।

‘सरजू! ए सरजू!’ इस अजनबी आवाज़ ने सरजू-सीमा का ध्यान भंग कर दिया है। सीमा थोड़ा संभल कर बैठ गई है और सरजू ने पूछा है- ‘कौन?’

‘हम छी, धनेसर।’

‘अरे कक्का आबह-आबह!’

‘त कहिया जाए के पलान बनलै हs?’

‘काल्हि जयबाक पलान छै। कतेक टाइम लगतै?’

‘कम सँ कम तीन घंटा तS लागिए जायत।’

‘तहन ठीक छै, एतय सँ सात बजे निकलब ठीक रहतै। अहाँक संगे के रहत?’

‘बिसनाथ के ल लेबै।’

‘बिसनाथ-का ठीक भ गेला!’ सरजू की आवाज़ में हर्ष-मिश्रित विस्मय है।

‘अरे कहाँ… मुदा पहिने जकाँ स्थिति नइँ छनि।’

धनेसर कक्का और सरजू के बीच संवाद के दौरान सीमा मौजूद रही है। मैथिली नहीं जानती, लेकिन आशय समझ गई है। सरजू कल सुबह रिज़र्वेशन के लिए सुपौल जाएगा- धनेसर काका की नाव से। बिसनाथ के नाम पर सरजू के चेहरे पर आए-गए भावों को लेकर वह उत्सुक है। धनेसर कक्का के जाते ही उसने पूछ लिया है- ‘ये बिसनाथ-का कौन हैं?’

‘हमारे गाँव के किसान हैं… हैं क्या… थे।’

‘थे!… मतलब?’

‘कोसी ने किसानी छीन ली और सरकारी सिस्टम ने उम्मीद। पानी उतरने के कुछ दिनों बाद तक तो उम्मीदों के सहारे जीते रहे। फिर निराशा ने पागल बना दिया। दिन-भर खेत में पागलों की तरह ‘रेत’ खखोरते रहते थे। अब तुम ही बताओ, हाथ से तीन-चार फीट मोटी रेत की परत हटाई जा सकती है क्या?’

‘लेकिन वे ऐसा कर क्यों रहे थे?’

‘कोसी त्रासदी के बाद प्रधानमंत्री तक हवाई दौरे पर आए। मुख्यमंत्री ने दिलासा दिया कि अब ये इलाका बिहार का पिछड़ा नहीं, बल्कि विकसित और सुव्यवस्थित इलाका बन जाएगा। उपजाऊ ज़मीन पर चढ़ बैठी रेत की परतों को हटाने और नई मिट्टी के अनुकूल नये क़िस्म की फसलें तजवीज़ करने के लिए कमेटी बनी। जाँच का ड्रामा हुआ। जिनकी जेबें गर्म होनी थीं- हुईं। जिनकी दुनिया संवरनी थी- संवरी। लेकिन किसानों की उम्मीदों पर रेत की परत ज्यों की त्यों चढ़ी रही। बिसनाथ-का ये झटका बर्दाश्त नहीं कर सके और पागल हो गए। शायद अब भी… अगर खेत में बाढ़ का पानी नहीं होता तो वे अपने हाथ से रेत ही उलीच रहे होते!’

सरजू और सीमा की बातचीत को काकी ने विराम दिया। दोनों हाथ-मुँह धोने के बाद चटाई पर आ बैठे। मकई और गेहूँ के आटे को मिक्स कर बनाई गई रोटी, बिल्कुल अलग ही स्वाद दे रही थी। ख़ासतौर से सीमा के लिए यह टेस्ट बिल्कुल नया था। तृप्त होने के बाद दोनों ने अपनी-अपनी चारपाई संभाल ली।

अँधेरे का तिलिस्म है। पानी का रंग अचानक गाढ़ा लाल हो उठा है। एक भंवर बन रहा है। सीमा उसमें तेज़ी से समाती जा रही है। चकरघिन्नी की तरह गोल-गोल घूमती-धंसती। चीख, फरियाद और फुत्कार का मिला-जुला शोर, उसके कान के पर्दे को फाड़ देने पर उतारू हैं। वह भय से गुड़मुड़ी होती जा रही है। ख़ुद में सिमटती जा रही है। उसका आकार लगातार संकुचित हो रहा है। जबकि बे-चेहरा पिशाचों की भीड़ लगातार नज़दीक आ रही है। शोर बढ़ता ही जा रहा है। कुछ साये थर-थर काँप रहे हैं। हाथ जोड़े घिघिया रहे हैं। क़ातिल और मक़तूल की आवाज़ें मिक्स-अप हो गई हैं। ‘मारो-मारो! …काटो सालों को! …कोई बचने न पाए! …नहीं-नहीं! …मुझे छोड़ दो! नहींsss …आह! …वाहे गुरू दी सौंह! …पापाजी माफ़ कर दो!’ और इसी बीच एक साये का हाथ ऊपर उठा है, तलवार हवा में लहराने के बाद तेज़ी से गर्दन की तरफ़ लपकी है। ठीक उसी वक़्त सीमा के हलक़ से थर्रा देने वाली चीख़ हवा में बुलंद हुई। सरजू लगभग गिरते-गिरते खाट से उठा और भागता हुआ सीमा के पास पहुँचा है। सीमा की साँस धौंकनी की तरह तेज़ है। सरजू उसको झकझोर रहा है। सीमा दुःस्वप्न से धीरे-धीरे मुक्त हो रही है। काकी गिलास में पानी ले आई है। सरजू ने गिलास सीमा के होठों से लगा दिया है।

सीमा अब संयत नज़र आ रही है। उसके चेहरे पर झेंप भरी मुस्कान है। उसने धीरे से ‘सॉरी’ कहा है। सरजू ने काकी को इशारे से सो जाने को कहा है। काकी अपनी खाट पर लौट आई हैं। सरजू ने थोड़ा रुक-कर पूछा है- ‘क्या कोई डरावना सपना देख रही थी?’ सीमा ने एक लंबी साँस ली- ‘हाँ, बहुत भयानक। बचपन से ही देख रही हूँ।’ सरजू थोड़ा और नज़दीक सरक आया है और सीमा के बालों में अपनी उँगली फंसा दी है। पीठ पर हाथ फेरा है और तसल्ली दी है- ‘कभी-कभी गहरी नींद में अवचेतन हावी हो जाता है। सभी के साथ होता है- ऐसा। घबराने की ज़रूरत नहीं है।’ सीमा के चेहरे पर फीकी मुस्कान उभर आई है। उसकी आवाज़ में बर्फ़ की-सी तासीर आ गई है। ‘अरे अब क्या! अब तो आदत पड़ गई है। शुरू-शुरू में तो मम्मी-पापा बेचैन हो जाते थे। मैं दहाड़ें मार-मारकर देर तक रोती रहती थी।’

‘क्यों बचपन में कोई हादसा हुआ था क्या- तुम्हारे साथ?’

‘अरे नहीं यार! हादसा तो मेरे जन्म से चार साल पहले ही हो गया था। हादसा नहीं, …क़यामत आई थी। हमारे पूरे ख़ानदान के लिए क़यामत। चेहरे पर दाढ़ी और सिर पर पगड़ी, मौत का निशान बन गई थी। हम गाजर-मूली की तरह काटे गए थे।’ …सीमा बोलते-बोलते ठिठक गई। उसके चेहरे पर जिज्ञासा उभर आई और उसने सरजू से पूछा- ‘अच्छा एक बात बताओ! महाभारत में अभिमन्यु और चक्रव्यूह वाली कहानी क्या सच्ची है?’ सरजू इस सवाल पर चौंक पड़ा है। थोड़ी देर सोचने के बाद उसके मुँह से बोल फूटे- ‘मुझे तो वह कोरी कल्पना ही लगती रही है। तुम्हीं बताओ, भला कोई माँ की पेट में रहते, बाहरी दुनिया में हो रहे संवाद सुन सकता है? और हद तो ये कि पैदा होने के बाद उसे वो बातें याद भी रह जाएँ!…’ सरजू को बीच में ही सीमा ने टोक दिया- ‘लेकिन मुझे तो लगता है कि ये कोरी कल्पना नहीं हो सकती। इसमें सच्चाई ज़रूर होगी। बल्कि मुझे तो लगता है कि माँ-बाप अपने बच्चों में सिर्फ अपने गुण-अवगुण ही नहीं, अपना चिर-संचित भय और डरावना अतीत भी ट्रांसफर कर देते हैं।…’ सीमा की लय को अबकी सरजू ने भंग किया। ‘अरे नहीं! ऐसा नहीं होता। ये तुम्हारा वहम है।’

‘तो तुम्हीं बताओ? सिख दंगा सन 1984 में हुआ। मैं 88 में पैदा हुई। मैंने तो वो दंगा न देखा, न भोगा। घटना में मेरे दादा-दादी, चाचा-चाची, मेरे भाई-बहन, रक्त-पिपासु भीड़ के शिकार बन गए। पापा-मम्मी को भी तो उनलोगों ने मार ही डाला था। वो तो उनकी क़िस्मत थी कि सांसों ने जिस्म का साथ नहीं छोड़ा।… (सीमा ने छोटा सा विराम लिया। सरजू को भरपूर निगाहों से देखा। सरजू ने कुछ कहा नहीं, सिर्फ अपने हाथों का कसाव सीमा की हथेली पर बढ़ा दिया। सीमा ने फिर कहना शुरू किया है।) …तुम्हें मालूम है! पापा बताते थे कि हमारा पूरा कुनबा पहले बिहार के वैशाली ज़िले में ही रहता था। पार्टीशन के बाद हमलोग माइग्रेट कर यहीं महुआ में सेट्ल हो गए थे और हमारा कपड़ों का अच्छा-खासा कारोबार था। सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि अचानक 31 अक्टूबर को एक ज़हरीली ख़बर रेडियो से हवा में फैली और सिख तरबूज बन गए। …पापा तो दोबारा यहीं रोज़गार जमाना चाहते थे, लेकिन मम्मी तैयार नहीं हुई और इस तरह हमलोग दिल्ली शिफ्ट कर गए। मैं तो दिल्ली में ही पैदा हुई। फिर भी यह दुःस्वप्न मेरे पीछे पड़ा हुआ है। आख़िर क्यों?’

अब सरजू क्या जवाब दे? उसे तो कुछ सूझ ही नहीं रहा। वह बस एकटक सीमा को देख रहा है। इतनी टीस, इतना भय और इतनी छटपटाहट लिए घूम रही है- ये लड़की! फिर भी खिलखिलाती है! ‘हे भगवान, ये कैसी पहेली है?’ सरजू की ज़ुबान से अचानक फिसल-कर गिरे इन शब्दों ने सीमा को चौंका दिया है और अब वह सवालिया निगाहों से सरजू को देख रही है। लेकिन जवाब होता तो सरजू चुप क्यों रहता! उसने धीरे से सीमा को कंधे से पकड़ खाट पर लिटा दिया और चादर ओढ़ा दी। सिर पर हल्की थपकी देने के बाद वह उठ खड़ा हुआ।

अकबर रिज़वी

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